प्रेम

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“प्रेम का दुख हार्दिक है। कांटा हृदय में चुभता है, भूख हृदय में अनुभव होती है। उदासी, विषाद हृदय के केन्द्र में उमग्रता है। प्रेम का दुख आत्मिक है। और निश्‍चित ही जो आत्मिक दुख उठाने को तैयार है, उसने कीमत चुकाई, अपने जीवन को यज्ञ बनाया। जो जीवन को यज्ञ बना लेते हैं, वे ही पहुंचते हैं।”

“जो प्रेम घृणा बन सकता है, वह प्रेम नहीं है। प्रेम और घृणा कैसे बन सकता है?”

“प्रेम और ध्यान : प्रेम का मतलब होता है-‘दूसरों के साथ होने की कला।’ जबकि ध्यान का मतलब है-‘स्वयं के साथ होने की कला।”

“प्रेम की तीन सीढियॉं हैं-साधारण प्रेम: जो मित्र-मित्र, पति-पत्नी, मॉं-बेटे, भाई-भाई में होता है। असाधारण प्रेम: शिष्य और गुरु में होता। तीसरा : आत्मा और परमात्मा में, बूंद और सागर में होता है।”