विकास, क्रांति और उत्कान्ति

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विकास का अर्थ होता है, जो अपने से हो रहा है। क्रांति का अर्थ होता है, जो करनी पड़ती है। जोर – जबर्दस्ती, हिंसा। इसीलिए क्रांति में तो मौलिक रूप से हिंसा छिपी हुई है। अहिंसक क्रांति होती ही नहीं। क्रांति का अर्थ ही जोर – जबर्दस्ती है। फिर तुमने जोर – जबर्दस्ती कैसे की, इससे फर्क नहीं पड़ता। किसी की छाती पर छुरा रखकर कर दी, कि उपवास रखकर कर दी, मगर जोर – जबर्दस्ती है। अपने को मारने की धमकी दी, कि दूसरे को मारने की धमकी दी, इससे भेद नहीं पड़ता।

क्रांति का अर्थ ही होता है – तुमने भरोसा खो दिया विकास पर, तुम जल्दबाजी में पड़े गये। क्रांति में अश्रद्धा है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि क्रांतिकारी अक्सर नास्तिक होते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि क्रांतिकारी अधार्मिक हो जाते हैं। यह आकस्मिक नहीं है। इसके पीछे तारतम्य है। क्रांति का अर्थ ही होता है, किसी व्यक्ति ने अब भरोसा खो दिया विकास पर। अब वह कहता है, हमारे बिना किये नहीं होगा। कुछ करेंगे तो होगा। ऐसे तो चलता ही रहा है, कभी कुछ नहीं होता। क्रांति का अर्थ होता है — जोर – जबर्दस्ती से लाया गया उलट-फेर। उसमें खून के धब्बे तो रहते ही हैं। दाग तो छूट जाते हैं जो फिर मिटाए नहीं मिटते।

उत्कांति का क्या अर्थ है?

उत्कांति बड़ा अनूठा शब्द है। उत्कांति में कुछ तो क्रांति का हिस्सा है – इसलिए उसको उत्कांति कहते हैं – और कुछ विकास का हिस्सा है इसलिए उसको क्रांति मात्र नहीं कहते, उत्कांति कहते हैं। विकास अपने से हो रहा है। बड़ी धीमी आहिस्ता गति है। तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। तुम सोते रहो, बैठे रहो, तुम जवान होते रहोगे। तुम सोते रहो, बैठे रहो, तुम बूढ़े होते रहोगे। कुछ करो न करो, बुढ़ापा आता रहेगा। अपने से हो रहा है। उसके विपरीत करना कुछ संभव नहीं है। जल्दबाजी भी क्या करोगे, जल्दबाजी भी कुछ हो नहीं सकती। अवश हो। तुम्हारी प्यास की भी जरूरत नहीं है, तुम्हारी प्रार्थना की भी जरूर नहीं है, तो विकास।

और क्रांति का अर्थ है – तुम्हारे पूरे अहंकार की जरूरत है। तुम अपने अहंकार के हाथ में सब ले लो, सारी व्यवस्था ले लो, जगत के नियम अपने हाथ में ले लो, तोड़-मरोड़ करो, जबर्दस्ती करो, अपनी मंशा पूरी करने की चेष्टा करो।

उत्कांति का अर्थ है, इतना तुम करो – प्रार्थना, प्यास – और शेष परमात्मा को करने दो। प्रार्थना तुम्हें करनी होगी, इसलिए थोड़ी क्रांति उसमें है। क्योंकि इतनी तो तुम्हें चेष्टा करनी होगी — प्रार्थना की, प्यास की, पुकार की। लेकिन फिर शेष अपने – आप होता है; बाकी सब विकास है।

ओशो

(अथातो भक्ति जिज्ञासा, भाग #2, प्रवचन #33)