अन्धविश्वास

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अन्धविश्वास?

“मैं लॉटरी हरवाता हूँ”

मैं बंबई से जब यात्रा करता था बार-बार, तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाता था. बंबई के स्टेशन पे जब बहुत मित्र मुझे छोड़ने आते, तो देख लेता गार्ड भी, देख लेता ड्राइवर भी कि, “इतने लोग आए हैं छोड़ने, ज़रूर कोई महात्मा होगा.” गाड़ी क्या चलती, मैं मुश्किल में पड़ जाता. गार्ड आके पैर पकड़े पड़ा है कि, “नंबर बता दीजिए”

“किस बात का नंबर?”

वे कहते, “आप तो सब जानते ही हैं, आपको क्या कहना है? मगर एक बार मिल जाए बस लॉटरी, सिर्फ़ एक बार! और आपकी कृपा से क्या नहीं हो सकता.”
मुझे बड़ी कठिनाई हो जाती. मैं जितना उनको समझाता कि, “भई! मुझे कोई नंबर वग़ैरह पता नहीं है. और लॉटरी मैं दिलवाता नहीं, हरवाता हूँ”

वे कहते, “नहीं, नहीं! आप भी क्या बात कर रहे हैं? महात्मा कभी ऐसा कर सकते हैं? महात्मा का तो काम ही ये है कि आशिर्वाद दे. आप मुझे टाल नहीं सकते. आज तो नंबर लेकर ही जाऊँगा. एक बार बस, दुबारा फिर आपको नहीं सताऊँगा. बस एक बार हो जाए तो सब ठीक हो जाए. अब आप देखिए, मेरी लड़की है, बड़ी हो गई, शादी करनी है. बेटा है, नौकरी नहीं लगती. तो कोई ऐसा आपसे नाजायज़ काम नहीं करवा रहा हूँ.”

तुम्हारे साधु, तुम्हारे महात्मा यही करते रहे हैं सदियों से, वेद से लेकर अब तक. और ऐसे-ऐसे काम करते रहे हैं कि तुम हैरान होओगे. दुश्मन को मारना है, उसके लिए भी तुम्हारा महात्मा आशिर्वाद दे देता है. वेदों में इस तरह की ॠचाएँ हैं, जो बड़ी बेहूदी हैं, जिनमें इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि, “हे इन्द्र! मेरे दुश्मन के खेत में फसल न हो, पानी न गिरे; कि मेरे दुश्मन की गाय के थन सूख जाएँ, उनसे दूध न बहे.”

जिन्होंने ये प्रार्थनाएँ की होंगी, वे धार्मिक थे? और जिन्होंने ये प्रार्थनाएँ संगृहीत कीं, वे धार्मिक थे? और जो सदियों से इस किताब को पूजते रहे हैं, वे धार्मिक हो सकते हैं?

ओशो

का सोवै दिन रैन