कबीर कहते हैं हमने तो एक को एक करके जान लिया। दूरी मिटा दी। अब हम दो नहीं हैं। भक्त जब तक भगवान न हो जाए तब तक दूरी बनी रहती है। भक्त चाहे भगवान के चरणों तक भी पहुंच जाए, तो भी तृप्ति नहीं होती। सच तो यह है, अतृप्ति और बढ़ जाती है चरणों के पास आकर। विरह और गहरा हो जाता है। संताप और गहरा होने लगता है, कि इतने करीब होकर अब और क्या बाधा है, कि छलांग क्यों नहीं लग जाती कि परमात्मा हो जाऊं?
इसलिए हिंदू धर्म जिन ऊंचाइयों को छूता है, उन ऊंचाइयों को इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी धर्म नहीं छू पाते। एक कदम पीछे रह जाते। ईसाइयत या इस्लाम परमात्मा के चरणों तक तो जाते हैं। लेकिन आखिरी छलांग की हिम्मत नहीं हो पाती। आखिरी छलांग की हिम्मत है, परमात्मा हो जाना। उससे कम में राजी मत होना। उससे कम में राजी रहोगे, दुखी रहोगे। परमात्मा के चरणों में रहोगे, लेकिन नर्क में रहोगे। क्योंकि सीमा बनी रहेगी। जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओगे तब तक पीड़ा की रेखा बनी रहेगी।
कहे कबीर दीवाना