गलत तपस्वी सिर्फ आदत बनाता है तप की। ठीक तपस्वी स्वभाव को खोजता है, आदत नहीं बनाता। हैबिट और नेचर का फर्क समझ लें। हम सब आदतें बनवाते है। हम बच्चे को कहते है—क्रोध मत करो, क्रोध की आदत बुरी है। न क्रोध करने की आदत बनाओ। वहन क्रोध करने की आदत तो बना लेता है, लेकिन उससे क्रोध नष्ट नहीं होता। क्रोध भीतर चलता रहता है। कामवासना पकड़ती है तो हम कहते है कि ब्रह्मचर्य की आदत बनाओ। वह आदत बन जाती है। लेकिन कामवासना भीतर सरकती रहती है, वह नीचे की तरफ बहती रहती है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तपस्वी खोजता है—स्वभाव के सूत्र को, ताओ को, धर्म को। वह क्या है जो मेरा स्वभाव हे, उसे खोजता है। सब आदतों को हटाकर वह अपने स्वभाव को दर्शन करता है। लेकिन आदतों को हटाने का एक ही उपाय है—ध्यान मत दो, आदत पर ध्यान मत दो।
एक मित्र चार छह दिन पहले मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि आप कहते है कि बम्बई में रहकर, और ध्यान हो सकता है। यह सड़क का क्या करें, भोंपू का क्या करें। ट्रेन जा रही है, सीटी बज रही है, बच्चे आस पास शोर मचा रहे है, इसका क्या करें?
मैंने कहा—ध्यान मत दो।
उन्होंने कहा –कैसे ध्यान न दें। खोपड़ी पर भोंपू बज रहा है, नीचे कोई हार्न बजाएं जा रहा है, ध्यान कैसे न दें।
मैंने कहा—एक प्रयास करो। भोंपू कोई नीचे बजाये जा रहा है, उसे भोंपू बजाने दो। तुम ऐसे बैठे रहो, कोई प्रतिक्रिया मत करो कि भोंपू अच्छा है कि भोंपू बुरा है। कि बजाने वाला दुश्मन कि बजाने वाला मित्र हे। कि इसका सिर तोड़ देंगे अगर आगे बजाया। कुछ प्रति क्रिया मत करो। तुम बैठे रहो, सुनते रहो। सिर्फ सुनो। थोड़ी देर में तुम पाओगे कि भोंपू बजता भी हो तो भी तुम्हारे लिए बजना बन्द हो जाएगा। ऐक्सैप्टैंस इट, स्वीकार करो।
जिस आदमी को बदलना हो उसे स्वीकार कर लो। उससे लड़ों मत। स्वीकार कर लो, जिसे हम स्वीकार लेते है उस पर ध्यान देना बन्द हो जाता है। क्या आपका पता है किसी स्त्री के आप प्रेम में हों उस पर ध्यान होता है। फिर विवाह करके उसको पत्नी बना लिया, फिर वह स्वीकृत हो गयी। फिर ध्यान बंद हो जाता है। जिस चीज को हम स्वीकृत लेते है…। एक कार आपके पास नहीं है वह सड़क पर निकलती है चमकती हुई, ध्यान खींचती है। फिर आपको मिल गयी, फिर आप उसमे बैठ गये है। फिर थोड़े दिन में आपको ध्यान ही नहीं आता है कि वह कार भी है, चारों तरफ जो ध्यान को खींचती थी। वह स्वीकार हो गयी।
जो चीज स्वीकृत हो जाती है उस पर ध्यान बन्द हो जाता है। स्वीकार कर लो, जो है उसे स्वीकार कर लो अपने बुरे से बुरे हिस्से को भी स्वीकार कर लो। ध्यान बन्द कर दो, ध्यान मत दो। उसको ऊर्जा मिलनी बंद हो जायेगी। वह धीरे–धीरे अपने आप क्षीण होकर सिकुड़ जाएगी, टूट जाएगी। और जो बचेगी ऊर्जा, उसका प्रवाह अपने आप भीतर की तरफ होना शुरू हो जायेगा।
गलत तपस्वी उन्ही चीजों पर ध्यान देता है जिन पर भोगी देता है। सही तपस्वी….ठीक तप की प्रक्रिया…ध्यान का रूपांतरण है। वह उन चीजों पर ध्यान देता है। जिन पर न भोगी ध्यान देता है, न तथा कथित त्यागी ध्यान देता है। वह ध्यान को ही बदल देता है। और ध्यान हमारे हाथ में है। हम वहीं देते है जहां हम देना चाहते है।
अभी यहां हम बैठे है, आप मुझे सुन रहे है। अभी यहां आग लग जाए मकान में,आप एक दम भूल जाएंगे कि सुन रहे थे, की कोई बोल रहा था, सब भूल जाएंगे। आग पर ध्यान दौड़ जाएगा, बहार निकल जाएंगे। भूल ही जाएंगे कि कुछ सुन रहे थे। सुनने का कोई सवाल ही न रह जाएगा। ध्यान प्रतिपल बदल सकता है। सिर्फ नए बिंदु उसको मिलने चाहिए। आग मिल गयी, वह ज्यादा जरूरी हे जीवन को बचाने के लिए। आग हो गयी, तो तत्काल ध्यान वहीं दौड़ जाएगा। आप के भीतर तप की प्रक्रिया में उन नए बिंदुओं और केन्द्रों की तलाश करनी है जहां ध्यान दौड़ जाए और जहां नए केन्द्र सशक्त होने लगें। इसलिए तपस्वी कमजोर नहीं होता, शक्तिशाली हो जाता है। गलत तपस्वी कमजोर हो जाता है। गलत तपस्वी कमजोर होकर सोचता है की हम जीत लेंगे और भ्रांति पैदा होती है जीतने की।
ओशो
महावीर वाणी