जन्मजात आदतें

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एक युवती विवाहित होकर आई। जिससे विवाह हुआ था वह भी पहुंचे हुए पंडित थे। लेने आए अपनी पत्नीे को ससुराल, तो वे एक पूरी का एक ही कौर करते थे। इधर पूरी परसी नहीं गई कि उधर खत्म। वह परसने वाली जब तक लौट कर देखे, पूरी नदारद! पत्नी छुप कर देख रही थी, बेचारी को शर्म आने लगी कि लोग क्या कहेंगे कि ऐसा पति मिला। तो उसने वहीं कोने से इशारा किया दो अंगुली का, कि कम से कम दो टुकड़े तो करो! पंडित जी समझे कि वह यह कह रही है कि यह रिवाज ठीक नहीं है, हमारे यहां तो दो पूरी एक साथ…। सो वे दो पूरी का एक कौर करने लगे।

उनकी पत्नी ने तो सिर ठोक लिया। रात जब पत्नी मिली तो उसने कहा तुमने तो हद कर दी! पहले ही ठीक थे। कम से कम एक कौर तो कर रहे थे एक पूरी का। मैंने कहा था कि दो कौर करो और तुमने दो शइरयों का एक कौर करना शुरू कर दिया!

पति ने कहा तुझे पता नहीं कि हम किस परिवार से हैं। रघुकुल रीति सदा चलि आई! मैं तो कुछ भी नहीं हूं मेरे स्वर्गवासी पिता थे कि जब भी कहीं किसी के यहां भोजन करने जाते थे तो उनको बैलगाड़ी में डाल कर वापस घर लाना पड़ता था। एक बार तो उनकी हालत इतनी खराब हो गई थी कि जब बैलगाड़ी में उनको किसी तरह डाल कर घर लाया गया तो वैद्य बुलाना पड़ा। वैद्य ने गोली दी तो उन्होंने आख खोल कर कहा कि वैद्यराज, अगर गोली ही खाने की जगह होती तो एक लड्डू और न खा लेते! अब जगह कहां!

मन ही पूजा मन ही धूप

संत रैदास-वाणी, प्रवचन-३,

ओशो