सिकंदर भारत आया। एक फकीर से मिला। फकीर नग्न था। सिकंदर ने कहा, तुम्हारे पास कुछ भी नहीं!
फकीर ने कहा, यह सारा जगत मेरा है! मैंने इसे बिना जीते जीत लिया है।
सिकंदर ने पूछा, बिना जीते कोई कैसे जगत को जीत सकता है?
उस फकीर ने कहा, मैंने इस जगत के मालिक को जीत लिया है। और जब मालिक अपने हाथ में है तो कौन फिक्र करे छोटी-मोटी चीजों को जीतने की! जब मालिक अपना है तो उसकी मालकियत अपनी है। और जीतने का ढंग यहां और है, तलवार उठाना नहीं–सिर झुकाना। हम झुक गए मालिक के चरणों में, झुक कर हम मालिक के अंग हो गए। यह सारी मालकियत अपनी है।
सिकंदर खुश हुआ था, ये बातें प्यारी थीं! सिकंदर ने कहा, लेकिन मैंने भी जगत जीता है, अपने ढंग से जीता है।
फकीर ने कहा कि ऐसा समझो कि रेगिस्तान में तुम खो जाओ और गहन प्यास लगे और मैं एक लोटे में जल लेकर उपस्थित हो जाऊं, तो एक लोटा जल के लिए तुम अपना कितना राज्य मुझे देने को राजी नहीं हो जाओगे, अगर तुम मर रहे हो, तड़फ रहे हो?
सिकंदर ने कहा, अगर ऐसी स्थिति हो तो मैं आधा राज्य दे दूंगा; मगर लोटा जल ले लूंगा। क्योंकि प्राण थोड़े ही गंवाऊंगा!
फकीर ने कहा, लेकिन मैं बेचूं तब न! आधे राज्य में मैं बेचूंगा? कीमत और बढ़ाओ। ज्यादा से ज्यादा कितना दे सकते हो?
सिकंदर ने कहा, अगर ऐसी ही जिद तुम्हारी हो और मुझे प्यास लगी हो और मैं मर रहा होऊं, तड़फ रहा होऊं, तो पूरा राज्य दे दूंगा।
तो फकीर ने कहा, कितना तुम्हारे राज्य का मूल्य है–एक लोटा भर पानी! इसमें तुमने जीवन गंवाया!
प्यास इतनी अनिवार्य है कि पूरा राज्य भी कोई दे सकता है। जैसे प्यास शरीर के लिए अनिवार्य है…शरीर में तो कम से कम बीस प्रतिशत और कुछ भी है, लेकिन आत्मा में तो सौ प्रतिशत धर्म है। धर्म का अर्थ स्वभाव है।
मौलिक धर्म—(प्रवचन—चौथा)