प्रेम यदि पाप है तो फिर संसार में पुण्य कुछ होगा ही नहीं। प्रेम पाप है तो पुण्य असंभव है। क्योंकि पुण्य का सार प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।अगर प्रेम पाप है, तो प्रार्थना भी पाप हो जाएगी। क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही परिशुद्ध रूप है। माना कि प्रेम में कुछ अशुद्धियां हैं, लेकिन पाप नहीं है। सोना अगर अशुद्ध हो तो भी लोहा नहीं है।
सोना अशुद्ध हो तो भी सोना है। अशुद्ध होकर भी सोना सोना है। रही शुद्ध करने की बात, सो शुद्ध कर लेंगे। कूड़े-करकट को जला देंगे, सोने को आग से गुजार लेंगे; जो व्यर्थ है, असार है, जल जाएगा आग में; जो सार है, जो शुद्ध है, बच जाएगा।प्रेम और प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना अशुद्ध सोने और शुद्ध सोने में। मगर दोनों ही सोना हैं, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं। इस पर मेरा बल है। यही आने वाले भविष्य के मनुष्य के धर्म की मूल भित्ति है।अतीत ने प्रार्थना और प्रेम को अलग-अलग तोड़ दिया था। और उसका दुष्परिणाम हुआ। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि प्रेम दूषित हो गया, कलुषित हो गया, निंदित हो गया। एक तरफ प्रेम को अपराध बना दिया हमने; तो जो प्रेम में थे, उनकी आत्मा का अपमान किया, उनके भीतर आत्मनिंदा पैदा कर दी। और इस जगत में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं है कि किसी व्यक्ति के भीतर आत्मनिंदा पैदा हो जाए। तो प्रेम के कारण हमने पापी पैदा कर दिया दुनिया में। प्रेम पाप है, तो जो भी प्रेम करते हैं, सब पापी हैं। और कौन है जो प्रेम नहीं करता? कोई पत्नी को करता है, कोई पति को, कोई बेटे को, कोई भाई को, कोई मित्र को। शिष्य भी तो गुरु को प्रेम करते हैं! गुरु भी तो शिष्यों को प्रेम करता है!
यहां जितने संबंध हैं, वे सारे संबंध ही किसी न किसी अर्थ में प्रेम के संबंध हैं। संबंध मात्र प्रेम के हैं। तो हमने सभी को पापी कर दिया। सारा संसार हमने पाप से भर दिया, एक छोटी सी भूल करके कि प्रेम पाप है।और दूसरा दुष्परिणाम हुआ कि जब प्रेम पाप हो गया, तो प्रार्थना हमारी थोथी हो गई, उसमें प्राण न रहे, औपचारिक हो गई। प्राण तो प्रेम से मिल सकते थे, तो प्रेम को तो हमने पाप कह दिया। जीवन तो प्रेम से मिलता प्रार्थना को, तो जीवन के तो हमने द्वार बंद कर दिए। प्रेम की ही भूमि से प्रार्थना रस पाती है, तो हमने भूमि को तो निंदित कर दिया और प्रार्थना के वृक्ष को भूमि से अलग कर लिया। भूमि वृक्षहीन हो गई और वृक्ष मुर्दा हो गया। ये दो दुर्घटनाएं घटीं। प्रेम पाप हो गया और प्रार्थना थोथी हो गई।इसलिए तुम्हारा प्रश्न तो स्वाभाविक है।
सदियों-सदियों ने यही समझाया है, इसलिए मन में यह सवाल उठता है: कहीं प्रेम पाप तो नहीं? लेकिन एक बुनियादी भूल हो गई। और उस बुनियादी भूल के कारण पृथ्वी धार्मिक होने से वंचित रह गई। उस भूल को सुधार लेना है। और जितनी जल्दी सुधर जाए उतना अच्छा है।मैं तुमसे कहता हूं, यह घोषणा करता हूं कि प्रेम पुण्य है।लेकिन मुझे गलत मत समझ लेना। जब मैं प्रेम को पुण्य कहता हूं तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बस प्रेम पर रुक जाना है। जब मैं प्रेम को पुण्य कह रहा हूं तो सिर्फ यही कह रहा हूं कि प्रेम में सोना छिपा है। कचरा भी है। लेकिन जो कचरा है, वह प्रेम नहीं है। वह विजातीय है। वह सोना नहीं है। कूड़ा-करकट होगा, मिट्टी होगी, कुछ और होगा। विरह की अग्नि से गुजारो इसे। और तुम धीरे-धीरे पाओगे कि तुम्हारे हाथों में प्रार्थना का पक्षी लग गया है, जिसके पंख हैं, जो आकाश में उड़ सकता है। जो इतना हलका है! क्योंकि सारा बोझ कट गया, सारी व्यर्थता गिर गई।
जिस दिन तुम प्रार्थना को अनुभव कर पाओगे, उस दिन तुम धन्यवाद दोगे अपने सारे प्रेम के संबंधों को, क्योंकि उनके बिना तुम प्रार्थना तक कभी नहीं आ सकते थे। तुम धन्यवाद दोगे प्रेम के सारे कष्टों को, सुखों को, मिठास के अनुभव और कडुवाहट के अनुभव; जहर और अमृत, प्रेम ने दोनों दिए, उन दोनों को तुम धन्यवाद दोगे। क्योंकि जहर ने भी तुम्हें निखारा और अमृत ने भी तुम्हें सम्हाला और यह घड़ी अंतिम आ सकी सौभाग्य की कि प्रेम प्रार्थना बना।प्रेम जब प्रार्थना बनता है तो परमात्मा के द्वार खुलते हैं।प्रेम पाप नहीं है। और किसी बुद्धपुरुष ने प्रेम को पाप नहीं कहा है।