जैन इतिहास में एक घटना है,
जो बड़ी मधुर है। ऐसा कहते हैं, कि एक स्त्री तीर्थंकर हो गई। यह होना तो नहीं चाहिए था। अघट घटा। वह स्त्री पुरुष जैसे ही रही होगी। उसमें स्त्रैण तत्त्व नहीं रहा होगा, इसलिए घट गया।
मल्लीबाई नाम की एक स्त्री सीधे ही मोक्ष को उपलब्ध हो गई। जैनियों ने उसका नाम ही बदल डाला। वे उसको मल्लीनाथ कहते हैं, मल्लीबाई ही नहीं कहते। क्योंकि उन्होंने कहा, कि यह बात ही फिजूल है यह कहना, कि यह स्त्री है। क्योंकि इसने तो सिद्ध ही कर दिया; इस की मुक्त दशा ने सिद्ध कर दिया कि यह पुरुष है। इसके शरीर की हम फिक्र नहीं करते। इसलिए उन्होंने उसको मल्लीबाई कहा ही नहीं। उसका नाम ही मल्लीनाथ कर दिया। वह भी चौबीस तीर्थंकरों में पुरुष की ही तरह स्वीकृत हो गई, स्त्री की तरह स्वीकृत नहीं रही। वह अपवाद था, लेकिन यह हो सकता है। अब पश्चिम में विज्ञान जानता है कि कभी-कभी किसी स्त्री का शरीर पुरुष के शरीर में रूपांतरित हो जाता है; हार्मोन बदल जाते हैं। कभी-कभी हार्मोन की मात्रा बिलकुल करीब होती है।
जैसे समझो, कि इक्यावन प्रतिशत हार्मोन पुरुष के हैं और उनचास प्रतिशत हार्मोन स्त्री के हैं, तो इस व्यक्ति में स्त्री और पुरुष के बीच बस, जरा-सा ही फासला है। किसी बीमारी में हार्मोन बदल जाएं, या इंजेक्शन और दवाओं से हार्मोन बदल जाएं और स्त्रीतत्त्व की मात्रा बढ़ जाए तो यह पुरुष स्त्री हो जाए, या स्त्री पुरुष हो जाए। बहुत से रूपांतरण हुए हैं।
मुझे लगता है मल्लीबाई इसी तरह की घटना रही होगी। उसके भीतर करीब-करीब पचास-पचास प्रतिशत पुरुष-स्त्री तत्त्व समतुल रहे होंगे। और वह पुरुष के मार्ग से मोक्ष को उपलब्ध हो गई। ठीक ही किया जैनों ने, कि उसका नाम बदल दिया। क्योंकि उससे व्यर्थ अपवाद के कारण अड़चन आती।
जैन विचार-पद्धति में स्त्री का सीधा मोक्ष नहीं हो सकता, यह मैं भी कहता हूं। मैं यह नहीं कहता कि स्त्री का सीधा मोक्ष हो ही नहीं सकता; जैन पद्धति में नहीं हो सकता। वह सारी की सारी पद्धति ध्यान की है। प्रार्थना की उसमें कोई जगह नहीं है। प्रार्थना का वहां कोई अर्थ नहीं है।
महावीर कहते हैं, किससे प्रार्थना करते हो? किसकी प्रार्थना करते हो? प्रार्थना से कुछ न होगा, ध्यान में उतरो। चुप होओ, मौन बनो, भीतर जाओ। ये हाथ किसके लिए जोड़े हुए हैं? वहां कोई भी नहीं है, जिसके लिए तुम हाथ जोड़ रहे हो।
अत्यंत एकांत! अत्यंत शांत! इसलिए महावीर ने अपनी परम-ज्ञान की अवस्था को कैवल्य कहा है, जहां केवल तुम रह गए; जहां बस तुम्हारी चेतना बची। वह समाधि की आखिरी अवस्था है।
लेकिन मीरा है, चैतन्य है, वे भी पहुंच जाते हैं। वे नाचते हुए पहुंचते हैं, गीत गाते हुए पहुंचते हैं, परमात्मा के रंग में डूबे हुए पहुंचते हैं। इनका पहुंचने का ढंग दूसरा है। ये प्रेम से पहुंचते हैं, ध्यान से नहीं।
ओशो
कहे कबीर दीवाना, प्रवचन – 20,