मृत्यु कीमती चीज है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो संन्यास न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो धर्म न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो परमात्मा का कोई स्मरण न होता, प्रार्थना न होती, पूजा न होती, आराधना न होती ; न होते बुद्ध, न महावीर, न कृष्ण, न क्राइस्ट, न मोहम्मद। यह पृथ्वी दिव्य पुरुषों को तो जन्म ही न दे पाती, मनुष्यों को भी जन्म न दे पाती। यह पृथ्वी पशुओं से भरी होती। यह तो मृत्यु ने ही झकझोरा। मृत्यु की बड़ी कृपा है, उसका बड़ा अनुग्रह है। मृत्यु ने झकझोरा, याद दिलाई।
बुद्ध को भी स्मरण आया था मृत्यु को ही देख कर। एक मरे हुए आदमी की लाश को देख कर पूछा था अपने सारथी से, इसे क्या हो गया? उस सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया। बुध्ध ने कहा, क्या मुझे भी मरना होगा? सारथी झिझका, कैसे कहें? बुद्ध ने कहा, झिझको मत। सच–सच कहो, झूठ न बोलना। क्या मुझे भी मरना होगा? मजबूरी में सारथी को कहना पड़ा कि कैसे छिपाऊं आपसे! आज्ञा तो यही है आपके पिता की कि आपको मौत की खबर न होने दी जाए, क्योंकि बचपन में आपके ज्योतिषियों ने कहा था कि जिस दिन इसको मौत का स्मरण आएगा, उसी दिन यह संन्यस्त हो जाएगा। मगर झूठ भी कैसे बोलूं! मृत्यु तो सबको आएगी। आपको भी आएगी, मालिक! मृत्यु से कोई कभी बच नहीं सका है। मृत्यु अपरिहार्य है।बुद्ध ने उसी रात घर छोड़ दिया, क्रांति घट गई। जब मृत्यु होने ही वाली है, तो हो ही गई; तो जितने दिन हाथ में है इतने दिनों में हम उसको खोज लें जो अमृत है।
ओशो
प्रीतम छबि नैनन बसी