एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर—दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरो की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खडे थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे है। आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे है। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोडी देर तक उनके कन्धे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किन्तु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अन्तत: उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’
मैं क्या कहता? उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं। प्रेम को न खोजकर जो परमात्मा को खोजता है, वह भूल में ही पड़ जाता है।
प्रेम के मन्दिर को छोड्कर जो किसी और मन्दिर की खोज में जाता है, वह परमात्मा से और दूर ही निकल जाता है।
किन्तु यह सब तो मेरे मन में था। वैसे मुझे चुप देखकर उन्होंने फिर कहा. ‘कहिए—कुछ तो कहिए। मैं बड़ी आशा से आपके पास आया हूं। क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन नहीं करा सकते?’
फिर भी मैं क्या कहता? उन्हें और निकट लेकर उनकी आंसुओ से भरी आंखें चूम लीं। उन आसुंओं में बड़ी आकांक्षा थी, बड़ी अभीप्सा थी। निश्चय ही वे आंखें परमात्मा के दर्शन के लिए बड़ी आकुल थीं। लेकिन, परमात्मा क्या बाहर है कि उसके दर्शन किए जा सकें? परमात्मा इतना भी तो पराया नहीं है कि उसे देखा जा सके!
अन्ततः मैंने उनसे कहा— ‘जो तुम मुझसे पूछते हो, वही किसी ने श्री रमण से पूछा था। श्री रमण ने कहा था : ‘ईश्वर के दर्शन? नहीं, नहीं, दर्शन नहीं हो सकते। लेकिन चाहो तो स्वयं ईश्वर अवश्य हो सकते हो।’ यही मैं तुमसे कहता हूं। ईश्वर को पाने और जानने की खोज बिलकुल ही अर्थहीन है। जिसे खोया ही नहीं है, उसे पाओगे कैसे? और जो तुम स्वयं ही हो, उसे जानोगे कैसे? वस्तुत: जिसे हम देख सकते हैं, वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। दृश्य बन जाने के कारण ही वह हमसे बाहर और पर हो जाता है। परमात्मा है हमारा स्वरूप और इसलिए उसका दर्शन असंभव है। मित्र, परमात्मा के नाम से जो दर्शन होते हैं, वे हमारी ही कल्पनाएं है। मनुष्य का मन किसी भी कल्पना को आकार देने में समर्थ है। किन्तु इन कल्पनाओं में खो जाना सत्य से भटक जाना है।
यह घटना मुझे अनायास याद हो आई है क्योंकि आप भी तो ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं। उसी संबंध में कुछ कहूं इसलिए ही आप यहां एकत्र हुए हैं।
मैं स्वयं भी ऐसे ही खोजता था। फिर खोजते—खोजते, खोज की व्यर्थता शात हुई। ज्ञात हुआ कि जो खोज रहा है, जब मैं उसे ही नहीं जानता हूं तो इस अज्ञान में डूबे रहकर सत्य को कैसे जान सकूंगा?
सत्य को जानने के पूर्व स्वयं को जानना तो अनिवार्य ही है।और स्वयं को जानते ही जाना जाता है कि अब कुछ और जानने को शेष नहीं है। आत्मज्ञान की कुंजी के पाते ही सत्य का ताला खुल जाता है।
सत्य तो सब जगह है। समग्र सत्ता में वही है। किन्तु उस तक पहुंचने का निकटतम मार्ग स्वयं में ही है। स्वयं की सत्ता ही चूंकि स्वयं के सर्वाधिक निकट है, इसलिए उसमें खोजने से ही खोज होनी सम्भव है। और जो स्वयं में ही खोजने मै असमर्थ है, जो निकट ही नहीं खोज पाता है तो दूर कैसे खोज पाएगा? दूर की खोज का विचार निकट की खोज से बचने का उपाय भी हो सकता है।
संसार की खोज चलती है ताकि स्वयं से बचा जा सके और फिर ईश्वर की खोज चलते लगती है। क्या स्वयं के अतिरिक्त शेष सब खोजें स्वयं से पलायन की ही विधियां नहीं है? भीतर देखें। वहां क्या दिखता है? अंधकार, अकेलापन, रिक्तता? क्या इस अंधकार, इस अकेलेपन, इस रिक्तता से भागकर ही हम कहीं शरण लेने को नहीं भागते रहते हैं? किन्तु इस भांति के भगोड़ेपन से दुख के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगता है। स्वयं से भागे हुए के लिए विफलता ही भाग्य है। क्योंकि जो खोज स्वयं से पलायन है, वह कहीं भी नहीं ले जा सकती है।
और दो ही विकल्प हैं : स्वयं से भागो या स्वयं में जागो। भागने के लिए बाहर लक्ष्य होना चाहिए और जानने के लिए बाहर के सभी लक्ष्यों की सार्थकता का श्रम—भंग। ईश्वर जब तक बाहर है, तब तक वह भी संसार है, वह भी माया है, वह भी मूर्च्छा है। उसका आविष्कार भी मनुष्य ने स्वयं से बचने और भागने के लिए ही किया है।
मित्र, इसलिए पहली बात तो मुझे यही कहनी है कि ईश्वर, सत्य, निर्वाण, मोक्ष—यह सब न खोजें। खोजें उसे जो सब खोज रहा है। उसकी खोज ही अन्ततः ईश्वर की, सत्य की और निर्वाण की खोज सिद्ध होती है।
आत्मानुसंधान के अतिरिक्त और कोई खोज धार्मिक खोज नहीं है। लेकिन, ‘आत्म ज्ञान’, ‘आत्म दर्शन’, आदि शब्द बड़े भ्रामक हैं। क्योंकि, स्वयं का जान कैसे हो सकता है? ज्ञान के लिए द्वैत चाहिए, दुई चाहिए। जहां दो नहीं हैं, वहां ज्ञान कैसे होगा? दर्शन कैसे होगा? सतत् कैसे होगा? वस्तुत: ज्ञान, दर्शनादि सभी शब्द द्वैत के जगत के हैं। और जहां अद्वैत है, जहां एक ही है, वहां वे एकदम अर्थहीन हो जाते हों तो कोई आश्रर्य नहीं। मेरे देखे, ‘आत्म—दर्शन’ असम्भावना है, वह शब्द ही असंगत है।
मैं भी कहता हूं—स्वयं को जानी। सुकरात ने यही कहा है, बुद्ध और महावीर ने भी यही कहा है। क्राइस्ट और कृष्ण ने भी यही कहा है। फिर भी स्मरण रहे कि जो जाना जा सकता है, वह स्व कैसे होगा? वह तो पर ही हो सकता है। जानना तो पर का ही हो सकता है। स्व तो वह है जो जानता है। स्व अनिवार्यरूप से ताता है। उसे किसी भी उपाय से ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता। तो फिर उसका ज्ञान तो ज्ञेय का होता है। ताता का ज्ञान कैसे होगा? जहां ज्ञान है, वहां कोई जाता है, कुछ ज्ञेय है। वहां कुछ जाना जाता है और कोई जानता है। अब जाता को ही जानने की चेष्टा क्या आंख को उसी आंख से देखने के प्रयास की भांति नहीं है? क्या कुत्तों को स्वयं अपनी ही पूंछ को पकड़ने की असफल चेष्टा करते आपने कभी देखा है? वे जितनी तीव्रता से झपटते हैं, पूंछ उतनी ही शीघ्रता से हट जाती है। इस प्रयास में वे पागल भी हो जाएं तो भी क्या उन्हें पूंछ की प्राप्ति हो सकती है? किन्तु हो सकता है कि वे अपनी पूछ पकड़ लें, लेकिन स्वयं को ज्ञेय बनाना, तो सम्मव नहीं है।
मैं सबको जान सकता हूं लेकिन उसी भांति स्वयं को नहीं। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सरल घटना कठिन और दुरूह बनी रहती है। फिर, हम आत्मज्ञान का क्या अर्थ करें? निश्चय ही वह वही ज्ञान नहीं है, जिससे कि हम परिचित हैं। वह जाता—ज्ञेय का संबंध नहीं है। इसलिए चाहें तो उसे परम ज्ञान कहें, क्योंकि फिर और कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता है या चाहें तो परम अज्ञान, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं होता है।
पदार्थ—ज्ञान विषय—विषयी का संबंध है, आत्मज्ञान विषय—विषयी का अभाव। पदार्थ—ज्ञान में ज्ञाता है, और ज्ञेय है; आत्मज्ञान में न ज्ञेय है और न ताता। वहां तो मात्र ज्ञान है। वह शुद्ध जान है।
जगत की सारी वस्तुएं ज्ञेय की भांति जानी जाती हैं। असल में जो ज्ञेय है, जेय बनती है, वही है वस्तु—जो जानता है, जाता है, वही है अवस्तु। ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है—पदार्थ—ज्ञान। किन्तु जहां न ज्ञेय है, न कोई ज्ञाता—क्योंकि जहां ज्ञेय नहीं, वहां ज्ञाता कैसे होगा? वहां जो शेष रह जाता है, जो ज्ञान शेष रह जाता है, वही है आत्मज्ञान?
ज्ञान की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही है आत्मज्ञान। और भी उचित है कि हम उसे ज्ञान ही कहें, क्योंकि वहां न कोई आत्म है और न अनात्म। बुद्ध ने ठीक ही किया कि उसे ‘आत्मा’ नहीं कहा। क्योंकि, उस शब्द में अहंता की ध्वनि है और जहां तक अहंता है, वहां तक आत्मा कहां?
इस ज्ञान को पाने की विधि क्या है, मार्ग क्या है, द्वार क्या है?
मैं एक घर में अतिथि था। उस घर में इतना सामान था कि हिलने—डुलने की भी जगह न थी। घर तो बड़ा था, किन्तु सामान की अधिकता से बिलकुल छोटा हो गया था। वस्तुत: वहां सामान ही सामान था और घर था नहीं, क्योंकि घर तो दीवारों से घिरे रिक्त स्थान का ही नाम है। दीवारें नहीं, वह रिक्त स्थान ही गृह है क्योंकि दीवारों में नहीं, रहना उस रिक्त स्थान में ही होता है। रात में गृहपति ने मुझसे कहा— ‘घर में जगह बिलकुल नहीं है, लेकिन जगह लाएं भी कहां से?’ उनकी बात सुन मैं हंसने लगा। मैंने फिर उनसे कहा— ‘रिक्त स्थान आपके घर में पर्याप्त है। वह यहीं है, और कहीं गया नहीं, केवल सामान से आपने उसे ढांक लिया है। कृपाकर सामान बाहर करें तो आप पाएंगे कि वह भीतर आ गया है। वह तो भीतर ही है, सामान के डर से दुबक गया है। सामान हटावें और वह अभी और यहीं है।’
आत्म—ज्ञान की विधि भी यही है।
मैं तो निरंतर हूं। सोते—जागते, उठते—बैठते, सुख में, दुख में—मैं तो हूं ही। ज्ञान हो, अज्ञान हो, मैं तो हूं ही। मेरा यह होना असंदिग्ध है। सब पर संदेह किया जा सके, लेकिन स्वयं पर तो संदेह नहीं किया जा सकता है। जैसा कि देकार्त ने कहा है— ‘संदेह भी करूं तो भी मैं हूं क्योंकि संदेह भी बिना उसके कौन करेगा? ‘ लेकिन, यह ‘मैं ‘ कौन हूं? यह ‘मैं ‘ क्या है? कैसे इसे जानूं? हूं सो तो ठीक लेकिन, क्या हूं? कौन हूं? मैं हूं यह असंदिग्ध है। और क्या यह भी असंदिग्ध नहीं है कि मैं जानता हूं—मुझमें ज्ञान है, चेतना है, दर्शन है? यह हो सकता है कि जो जानूं, वह सत्य न हो, असत्य हो, स्वप्न हो, लेकिन मेरा जानना—जानने की क्षमता—तो सत्य है।
इन दो तथ्यों को देखें, विचार करें। मेरा होना—मेरा अस्तित्व और मेरी जानने की क्षमता—मुझमें ज्ञान का होना, इन दोनों के आधार पर ही मार्ग खोजा जा सकता है।
मैं हूं लेकिन ज्ञात नहीं कौन हूं? अब क्या करूं? ज्ञान जो कि क्षमता है, ज्ञान जो कि शक्ति है, उसमें झांकूं, और खोजूं। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प ही कहां है?
ज्ञान की शक्ति है, लेकिन वह ज्ञेय से—विषयों से—ढंकी है। एक विषय हटता है, तो दूसरा आ जाता है।
एक विचार जाता है तो दूसरे का आगमन हो जाता है। ज्ञान एक विषय से मुक्त होता है तो दूसरे से बंध जाता है, लेकिन रिक्त नहीं हो पाता। यदि ज्ञान विषय—रिक्त हो तो क्या हो? क्या उस अंतराल में, उस रिक्तता में, उस शून्यता में ज्ञान स्वयं में ही होने के कारण स्वयं की सत्ता का उद्घाटक नहीं बन जाएगा? क्या जब जानने को कोई विषय नहीं होगा तो ज्ञान स्वयं को ही नहीं जानेगा?
ज्ञान जहां विषय—रिक्त है, वहीं वह स्वप्नतिष्ठ होता है। ज्ञान जहां ज्ञेय से मुक्त है, वहीं वह शुद्ध है। और वह शुद्धता—शून्यता—ही आत्मज्ञान है।
चेतना जहां निर्विषय है, निर्विचार है, निर्विकल्प है, वहीं जो अनुभूति है, वही स्वयं का साक्षात्कार है। किंतु यहां इस साक्षात्कार में न तो कोई ज्ञाता है, न ज्ञेय है। यह अनुभूति अभूतपूर्व है। उसके लिए शब्द असम्भव है।
लाओत्से ने कहा है— ‘सत्य के संबंध में जो भी कहो, वह कहने से ही असत्य हो जाता है।’
फिर भी सत्य के’ संबंध में जितना कहा गया है, उतना किस संबंध में कहा गया है? अनिर्वचनीय उसे कहें, तो भी कुछ कहते ही हैं? उसके संबंध में मौन रहें तो भी कुछ कहते ही है?
ज्ञान है शब्दातीत। किन्तु प्रेम उसके आनन्द की, उसके आलोक की, उसकी मुक्ति की खबर देना चाहता है, फिर चाहे वे इंगित कितने ही अधूरे हों और कितने ही असफल वे इशारे हों। गूंगा भी गुड़ के संबंध में कुछ कहता है? वह चाहे कुछ भी न कह पाता हो लेकिन गुड़ कहना चाहता है, यह तो कह ही देता है।
किन्तु सत्य के संबंध में किए गए अधूरे इंगितों को पकड़ लेने से बडी भ्रांति हो जाती है। आत्मज्ञान की खोज में जो व्यक्ति आत्मा को एक ज्ञेय पदार्थ की भांति खोजने निकल पड़ता है, वह प्रथम चरण में ही गलत दिशा में चल पड़ता है।
आत्मा ज्ञेय नहीं है और न ही उसे किसी आकांक्षा का लक्ष्य ही बनाया जा सकता है, क्योंकि वह विषय भी नहीं है।
वस्तुत: उसे खोजा भी नहीं जा सकता क्योंकि यह खोजनेवाले का ही स्वरूप है। उस खोज में खोज और खोजी भिन्न नहीं है। इसलिए आत्मा को केवल वे ही खोज पाते है, जो सब खोज छोड़ देते है और वे ही जान पाते हैं जो सब जानने से शून्य हो जाते हैं।
खोज कों—स्ब भांति की खोज को—छोड़ते ही चेतना वहां पहुंच जाती है, जहां वह सदा से ही है। समाधि के बाद तथागत बुद्ध से किसी ने पूछा— ‘समाधि से आपको क्या मिला?’ तो बुद्ध ने कहा था— ‘कुछ भी नहीं। खोया बहुत कुछ, पाया कुछ भी नहीं। वासना खोई, विचार खोए, सब भांति की दौड़ और तृष्णा खोई और पाया वह जो सदा से ही पाया हुआ है।’
मैं जिसे नहीं खौ सकता हूं वही तो है स्वरूप। मैं जिसे नहीं खो सकता हूं वही तो है परमात्मा।
और सत्य क्या है? जो सदा है, सनातन है, वही तो है सत्य। इस सत्य को, इस स्वरूप को पाने के लिए चेतना से उस सबको खोना आवश्यक है जो कि सत्य नहीं है। जिसे खोया जा सकता है, उस सबको खोकर ही वह जान लिया जाता है, जो सत्य है। रूप खोते ही सत्य उपलब्ध है।
मित्र, मैं पुन: दोहराता हूं—स्वप्न खोते ही सत्य उपलब्ध है। स्वप्न जहां नहीं है, तब जो शेष है, वही है स्व—सत्ता, वही है सत्य, वही है स्वतन्त्रता।
ओशो
‘मैं कौन हूं’
से संकलित क्रांति?सूत्र 1966—67
मैं कहता आंखन देखी