एक जापानी झेन फकीर – वह एक मंदिर के पास से गुजरता था और मंदिर में बौद्धों का एक सूत्र पढ़ा जा रहा था, ऐसे मंदिर के द्वार से गुजरते हुए, सुबह का समय है, अभी पक्षी गुनगुना रहे, सूरज निकला है, सब तरफ शांति और सब तरफ सौंदर्य दिख रहा है, उस मठ के भीतर होती हुई मंत्रों की गूंज, उसे एक मंत्र सुनाई पड़ गया ऐसे ही निकलते सुनने भी नहीं आया था, कहीं और जा रहा था, सुबह घूमने निकला होगा, मंत्र था, जिसका अर्थ था कि ‘जिसे तुम बाहर खोज रहे हो वह भीतर है।’
साधारण सी बात ज्ञानी सदा से कहते रहे हैं,
प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है, आनंद तुम्हारे भीतर है, आत्मा तुम्हारे भीतर है ऐसा ही सूत्र, कि जिसे तुम बाहर खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर है, कुछ झटका लगा, जैसे किसी ने नींद में चौंका दिया ठिठक कर खड़ा हो गया, जिसे तुम बाहर खोज रहे हो, तुम्हारे भीतर है?
बात तीर की तरह चुभ गई, बात गहरी उतर गई,
बात इतनी गहरी उतर गई कि रिंझाई रूपांतरित हो गया,
कहते हैं, रिंझाई ज्ञान को उपलब्ध हो गया, समाधि उपलब्ध हो गई, खोजने भी न गया था, समाधि की कोई चेष्टा भी नहीं थी, सत्य की कोई जिज्ञासा भी नहीं थी, मंदिर से ऐसे ही अनायास गुजरता था, और ये शब्द कोई ऐसे विशिष्ट नहीं हैं, हर मंदिर में ऐसे सूत्र दोहराए जा रहे हैं…..
और तुम चकित होओगे जान कर, जो पुजारी दोहराता था वह वर्षों से दोहरा रहा था; उसे कुछ भी न हुआ, वह पुजारी ज्ञानी था लेकिन मूढ़ था, वह दोहराता रहा; तोते की तरह दोहराता रहा, जैसे तोता राम—राम, राम—राम रटता रहे…तुम जो सिखा दो वही रटता रहे, इससे तुम यह मत सोचना कि तोता मोक्ष चला जाएगा क्योंकि राम—राम रट रहा है, प्रभुनाम स्मरण कर रहा है…
यह भी हो सकता है उस दिन हुआ तो नहीं, लेकिन यह हो सकता है कि मंदिर में कोई पुजारी न रहा हो, ग्रामोफोन रिकॉर्ड लगा हो, और ग्रामोफोन रिकॉर्ड दोहरा रहा हो कि जिसे तुम बाहर खोजते हो वह तुम्हारे भीतर है,
ग्रामोफोन रिकॉर्ड को सुन कर भी कोई ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है… तुम पर निर्भर है, तुम कितनी प्रज्ञा से सुनते हो। तुम कितने होश से सुनते हो, उस सुबह की घड़ी में, सूरज की उन किरणों में, जागरण के उस क्षण में अनायास यह व्यक्ति जागा हुआ होगा;
होश से भरा हुआ होगा, एक छोटी सी बात क्रांति बन गई
रिंझाई महाज्ञानी हो गया। वह घर लौटा नहीं… वह मंदिर में जाकर दीक्षित होकर संन्यस्त हो गया, पुजारी ने पूछा भी, कि क्या हुआ है? उसने कहा, बात दिखाई पड़ गई, जिसे मैं बाहर खोजता हूं वह भीतर है निश्चयमात्रेण!
ओशो
अष्टावक्र: महागीता (भाग–5) प्रवचन–65