मुल्ला नसरुद्दीन बड़ा शक्की स्वभाव का था। जब उसने नई—नई कार खरीदी तो यार—दोस्तों ने समझाया कि नसरुद्दीन, ड्राइवर जरा सोच—समझ कर रखना, बड़े बदमाश होते हैं ये लोग। मौका पाते ही आंखों में धूल झोंक कर नई गाड़ी के सामान बदल लेते हैं और कबाड़खाने से खरीद कर पुराने कल—पुर्जे डाल देते हैं।
नसरुद्दीन ने कहा बिलकुल ठीक, मैं ड्राइवर की बराबर निगरानी रखूंगा।
पास ही के मुहल्ले में रहने वाले और ईमानदार समझे जाने वाले मियां महमूद को नसरुद्दीन ने ड्राइवर रखा। पहला ही दिन था, सुबह—सुबह मुल्ला शहर घूमने निकला। घर से चलने के पहले महमूद बोला मालिक एक स्कू—ड्राइवर भी साथ रख लीजिए, वक्त—बेवक्त कहीं काम आ सकता है। नसरुद्दीन ने गरज कर कहा: बड़े मियां, कमाल है! वक्त पर स्कू—ड्राइवर ही काम आना है तो मैने तुम्हें किसलिए ड्राइवर रखा है? यह भी खूब रही, ड्राइवर भी रखूं? ऊपर से स्कू—ड्राइवर भी रखूं! तुमने अभी गाड़ी को हाथ नहीं लगाया और धोखा देना शुरू किया!
बेचारे मियां महमूद ने बामुश्किल नसरुद्दीन को समझाया कि स्कू—ड्राइवर कोई ड्राइवर नहीं होता, यह तो पेचकस का नाम है। मुल्ला का संदेह विश्वास में परिणत हो उठा कि जरूर यह चालबाज नवजवान उसकी नई कार के बेशकीमती कल—पुर्जे बदलने की फिराक में है, वरना पेंचकस की क्या जरूरत आ पड़ी अभी—अभी, शुरू—शुरू, पहले ही दिन! खैर, मन ही मन अपने संदेह को दबाए वह घर से निकला और मियां महमूद की एक—एक हरकत को शेरलॉक होम्स की जासूसी निगाहों से नसरुद्दीन देख रहा था। जब महमूद ने खटाक से कुछ किया तो इंजन की आवाज तेज हो उठी।
मुल्ला ने सीट से उचक कर पूछा मियां, क्या किया तुमने? यह आवाज कैसी हुई? जवाब मिला, हुजूर, मैंने अभी—अभी गेयर बदला, इसी कारण यह आवाज हुई। मेरे दोस्तों ने सच कहा था— मुल्ला नसरुद्दीन ने गरीब ड्राइवर की गर्दन पकड़ कर कहा— मगर तुम्हारा भी जवाब नहीं बड़े मियां! अरे जब दिन—दहाड़े मेरी आंखों के सामने ही गेयर बदल रहे हो तो न जाने मेरी पीठ पीछे क्या—क्या न करोगे!
थोड़ी दूर जाकर घरघराहट की आवाज के साथ कार खड़ी हो गई। महमूद बोला, मालिक, गाड़ी में पेट्रोल खत्म। अब गाड़ी आगे नहीं जा सकती। नसरुद्दीन ने मन ही मन सोचा, जरूर इस बदमाश ने ही कुछ गड़बड़ की है। कल से मैं दूसरा आदमी रख लूंगा। मगर प्रकट में वह बोला, पेट्रोल नहीं है तो न रहे और यदि गाड़ी आगे नहीं जा सकती तो सुनो मियां, गाड़ी पलटाओ और वापस घर चलो।
मन ही पूजा मन ही धूप
(संत रैदास-वाणी), प्रवचन-४
ओशो