बात उस समय की है, जब भगवान बुद्ध श्रावस्ती में विहरते थे। श्रावस्ती नगर के पास केवट गांव के कुछ मल्लाहों ने अचरवती नदी में जाल फेंककर कर एक स्वर्ण-वर्ण की अद्भुत मछली को पकड़ा। कहानी कहती है अचरवती नदी…..जो चिर नहीं है……अचिर यानि क्षणभंगुर है।
सोने की मछली तो मल्लाहों ने पकड़ ली, जिसका शरीर तो सोने का था, परन्तु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध आ रही थी।
मल्लाहों की समझ में बात आई नहीं, ऐसी मछली तो पहले न देखी थी न सुनी थी। जब बात सर से उपर चली गई तो वह राज के पास गये। भला राजा को भी कहां समझ में आनी थी। वह भी सीमित संकुचित बुद्धि का होगा हमारा प्रतिनिधित्व हमसे अलग कैसे हो सकता है। राजा उसे द्रोणी में रख कर भगवान के पास ले गए, और उसी समय मछली में अपना मुख खोला।
जैसे ही मछली को भगवान के सामने लाये उसने अपना मुख खोला;
राजा ने पूछा: भंते, भगवान का ही अति सुंदर छोटा रूप है, भंते, क्यों इसका शरीर स्वर्ण का हो गया। और इसके मुख से कितनी दुर्गंध आ रही है। भगवान ने मछली को गोर से देख, चले गये उसके पूर्व जन्म में ऐक्सरे मशीन की तरह….ओर कहा यह कोई साधारण मछली नहीं है।
यह कश्यप बुद्ध के शासन काल में कपिल नाम का एक महा पंडित भिक्षु था। संन्यास धारण किया था इसने। त्रिपुटक था, ज्ञानी था, विद्यावान था। देखा आपने ज्ञान से अंहकार कटता नहीं और मजबूत हो जाता है। धन, पद, यश, नाम तो तुम्हारे कपड़ों की तरह से है। पर ज्ञान तो तुम्हारी चमड़ी की तरह है। धन छोड़ सकते हो, घर छोड़ सकते हो बड़े मजे में। पर चमड़ी को छोडने के लिए विकट साहस की जरूरत है। वो तो कोई विरल ही कर सकता है। चमड़ी को उतरना कठिन है। इसलिए आपने देखा बोधक तोर से ज्ञानी लोग अहंकारी होते है। अहंकार और ज्ञान का चोली दामन का साथ है।
इसने अपने गुरू को धोखा दिया। इसकी देह तो स्वर्ण की हो गई पर अंदर दुर्गंध भरी रह गई।
ऐसा अकसर होता है, महावीर को उसके ही शिष्य मखनी गोशालक ने धोखा दिया। महा पंडित था, बड़ा ज्ञानी था…पर क्या हुआ। बुद्ध को उसके ही चचेरे भाई देवदत्त ने मारने की कोशिश की। साथ खेला था, बुद्ध से दीक्षा ले उनका संन्यासी हुआ। सुसंस्कृत था, सुसभ्य था। ज्ञानी था। ऐसा ही जीसस के साथ हुआ सब अनपढ़ थे एक पढ़ा लिखा शिष्य था जूदास, तीस रूपये में बेच दिया अपने ही गुरू को।
राजा को इस कथा पर भरोसा नहीं आया, तुमको भी नहीं आयेगा। किसे आता है, कौन मानने को तैयार है कि मृत्यु के बाद भी कुछ है। इसका क्या प्रमाण है। पर मृत्यु के बाद नहीं तो जन्म के बाद तो हम हजारों प्रमाण देखते है। एक ही माता पिता से एक ही कोख से जन्म लेने के बाद दो सन्तान एक सी नहीं होती, न बौधिक तोर से शारीरिक तोर से ये भिन्नता आती कहां से कुछ तो ऐसा है जो यहां का नहीं है, फिर वह यहां रह ही कैसे सकता है।
राजा ने कहां आप इस मछली के मुख से कहलाये तो मानें। सोचना बुद्ध की बात पर यकीन नहीं आया। भरोसा नहीं आया। पर मछली अगर बोल दे तो यकीन आ जाए, ऐसा है मनुष्य फिर गिरेगा अचरवती में, यही है वेदन, पीड़ा। देखी आदमी की मूढ़ता ऐसी होती है। क्षुद्र बातों पर बहुत भरोसा करता है। विराट छूटता चला जाता है। मछली कहे तो मानें।
भगवान हंसे, शायद करूणा के कारण, चला एक और मछली की रहा पर। और उन्होंने राजा को देखा। मछली की आंखों में झांक कर कहां, याद करो भूले को याद करों तुम्हीं हो कपिल, झांक कर देखो, तुम्हीं हो कपिल?
मछली बोली: हां, भंते, मैं ही कपिल हूं।
हों, भंते, मछली ने कहां: ‘’मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू भर आये। गहने सम्मोहन में केंद्रित हो गई, पश्चाताप से भर जार-जार आंसू बह चलें। आगे कोई शब्द नहीं निकला। खो गई उस क्षण में जब अपने गुरू को धोखा दिया था। आंखे खुली की खुल रह गई, मुहँ भी यथा वत खुला हा, और प्राण निकल गए। मर गई मछली पल भर में।
पर एक चमत्कार हुआ, उसका मुख तो पहले की तरह ही खुला था पर अब उसमें दुर्गंध नहीं थी। जैसे ही पुराने वाली दुर्गंध हवा के साथ विलीन होने लगी। अपूर्व सुगंध से भर गई वह जगह। एक मधुर सुवास चारों तरफ फेल गई।
राजा चुका मछली पा गई। उलटी दुनियां है। राजा अभी भी बैठा देख रहा है। सोच रहा होगा जरूर बुद्ध ने कुछ किया है। कोई चमत्कार कोई वेन्ट्रीलोकिस्ट जानते होंगे, राजा की समझ में कुछ नहीं आया। राजा होने भर से क्या समझ विकसित हो जाती है। वेन्ट्रीलोकिस्ट मूर्ति को बुलावा दे, गड्ढे को बुलवा दे, मछली को बुलवा दे। उसके होठ नहीं हिलते पर बोलता वही है।
गंध कुटी के चारों तरफ एक सुवास फेल गई। एक गहन शांति छा गई। समाधि के मेघों से सीतलता बरसाने लगी। एक ही क्षण में क्रान्ति घटित हो गई। एक सन्नाटा, विषमय, और प्रसाद का चारों और फेल गया। अवाक हर गये लोग, संविग्न, विषमय विमुग्ध, जड़ वत खड़े रह गये लोग। भाव विभूत हो गये लोग।
जीते जी दुर्गंध आ रही थी। मर कर तो और अधिक आनी चाहिए थी। पर नहीं कुछ अपूर्व घटा, कुछ ऐसा घटा जो घटना चाहिए। जिस की प्रत्येक भिक्षु इंतजार करता है। मछली मर गई उसका मुख खुला रह गया, पवित्र कर गया उसे अंतस में जमे अंहकार को, उसका पश्चाताप क्षण में गला गया पत्थर को जो जन्मों से उसे खाये चला जा रहा था। बुद्ध के सान्निध्य में मोम बन कर बह गया सब। परम भाग्यशाली थी। गल गया पिघल गया उसका अन्तस आंसू बन कर।
किसी दूसरे बुद्ध को धोखा दिया और किसी बुद्ध के समक्ष पश्चाताप किया समय की दुरी है, पर बुद्धत्व का स्वाद वहीं है। अहंकार लेकर मरी थी किसी बुद्ध के संग और अहंकार गर्ल कर मर गई किसी दूसरे बुद्ध के सामने। क्षमा मांग ली। आंसू बन गए। इससे सुन्दर क्षण मरने का कहां प्राप्त होता है। सौभाग्य शाली रही। मछली, परम भाग्य शाली थी।
चारो तरफ कैसा सन्नाटा छा गया। सारे भिक्षु इक्कट्ठे हो गये। मछली को देखने के लिए। जो दुर थे वो भी भागे, कि ये दुर्गंध कैसे उठी, ये सब उन लोगो ने देख, मछली को बोलते, मरते, फिर महाराज को भी देखा। फिर बुद्ध के अद्भुत वचन सुने, जैत वन जो पहले दुर्गंध से भर गया था अचानक अपूर्व सुगंध से भरने लगा। भिक्षु उस सुगंध से परिचित थे। उन्हें भली भाति ज्ञात थ जब वो गंध कुटी के पास से गुजरते थे तो वहीं गंध उनके नासापुट में भर जाती थी। बुद्धत्व की गंध थी। पुरी प्रकृति में पेड़ पर उसके फूल खिलते है तो अपनी-अपनी गंध बिखरते है। तो जब मनुष्य का फूल खिलेगा तो उसकी अपनी कोई गंध नहीं होगा। हम उस गंध को नहीं जान सकते जब तक हम अंदर गंदगी से भरे है। ध्यान हमारे, तन मन की स्वछता का नाम है।
मछली उपलब्ध होकर मरी, एक क्षण में क्रांति घट गई।
क्रांति जब घटती है। क्षण में ही घटती है। ये हमारे बोध की बात है, त्वरा की बात है।
ये कथाएं हमारे जीवन दर्शन की कथा कहती है। हमारी चेतना के तलों को भी उजागर कर रही है। हमारी समझ को हमारे ही सामने पारदर्श कर रही है। कहां है हमें होश बुद्ध के होश के सामने, तो अभी हम गहरी तन्द्रा में सोये है। छोटे बच्चों से भी छोटे है।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो