तुमने पूछा है: मैं कैसे अपने अचेतन, अपने अंधरे को प्रकाश से भर दूं?
एक छोटा सा काम करना पड़ेगा। बहुत छोटा सा काम।
चौबीस घंटे तुम दूसरे को देखने में लगे हो—दिन में भी और रात में भी। कम से कम कुछ समय दूसरे को भूलने में लगो। जिस दिन तुम दूसरे को बिलकुल भूल जाओगे, बुद्धि की उपयोगिता नष्ट हो जाएगी।
इसे ज्ञानियों ने ध्यान कहा है। ध्यान का अर्थ है: एक ऐसी अवस्था,जब जानने को कुछ भी नहीं बचा। सिर्फ जानने वाला ही बचा। उससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। लाख भागो पहाड़ों पर और रेगिस्तानों में, चाँद—तारों पर,लेकिन तुम्हारा जानने वाला तुम्हारे साथ होगा। चूंकि वह तुम हो, वह तुम्हारी आस्तित्व है। रोज घडी भर, कभी भी सुबह या सांझ या दोपहर, इस अनूठे आयाम को देना शुरू कर दो। बस आँख बंद करे बैठ जाओ…….
जब मैं कहता हूं कि घड़ी आधा घड़ी को आँख बंद करके बैठ जाओ….तो तुमसे मैं यह कहा रहा हूं कि घड़ी आधा घड़ी को दूसरों को भूल जाओ। चौबीस घंटे पड़े है। तेईस घंटे सारे संसार को दे दो, बाजार को दे दो, दुकान को दे दो, मकान को दे दो—जिसको देना हो,उसको दे दो। लेकिन क्या तुम इतने भी अधिकारी नहीं हो कि एक घंटा अपने लिए बचा लो? शायद चौबीस घंटा बचाना बहुत मुश्किल है एक घंटा बचाना आसान हो सकता है। और फिर मैं तुम से यह भी नहीं कहता कि इस घंटे को बचाने के लिए तुम हिमालय की किसी गुफा में बैठो। तुम्हारा घर पर्याप्त है, और सबसे ज्यादा आसान जगह है। क्योंकि वहां जो भी है, उससे तुम्हें परिचय है। और एक घंटे के लिए उस सबको भूल जाना कठिन नहीं है।
आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, जल्दी ही वह घड़ी आ जाती है कि तुम चुपचाप बैठे ही रहते हो। मूर्तियां आएंगी, मत रस लेना उनमें—न पक्ष में और न विपक्ष में। आने देना और जाने देना। रास्ता है, मन की राह है। चलती है। तुम राह के किनारे बैठे देखते रहना। और तुम चकित होओगे, इस जीवन के सबसे बड़े रहस्य के चकित होओेगे, कि अगर तुम साक्षी भाव से—सिर्फ साक्षी भाव से, जैसे तुम कुछ लेना—देना नहीं कौन जा रहा है, कौन आ रहा है, तुम गुमसुम चुपचाप सड़क के किनारे बैठे ही रहना। जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी कि यह रास्ते की भीड़ कम होने लगेगी। क्योंकि इस भीड़ के रास्ते पर होने का कारण है। तुमने इसे निमंत्रण दिया है। तुमने अब तक इसका स्वागत है। यह बिना बुलाई नहीं है। और जब यह देखेगी कि तुम इतनी उपेक्षा से भर गए हो कि तुम लौट कर भी नहीं देखते—कौन आया, कौन गया, अच्छा था या बुरा, सुंदर था या कि असुंदर, अपना था कि पराया—यह भीड़ धीरे—धीरे विदा होने लगेगी।
ध्यान की प्रक्रिया बड़ी सरल है। थोडी सी धैर्य की क्षमता चाहिए। और खोने को क्या है? अगर कुछ न भी मिला तो कम से कम घंटा भर आराम तो कर ही लोगे। लेकिन मैं जानता हूं अपने अनुभव से और उन हजारों लोगों के अनुभव से, जिनको मैंने इस प्रक्रिया से गुजारा है, एक दिन वह घड़ी आ जाती है। वह महाघड़ी आ जाती है कि मन का रास्ता खाली हो जाता है। धूल भी नहीं उड़ती जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता। और जब जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता, तब सिर्फ जानने वाला शेष रह जाता है। और उस जानने वाले को अब कोई उपाय नहीं किसी ओर को जानने का। सिवाय अपने को जानने के। जानना उसका स्वभाव है। अगर तुम कुछ खिलौने उसे हाथ में दे देते हो, कोई झुनझुना हाथ में दे देते हो, वह उसी को जानता रहता है। अब आज कुछ भी नहीं है। आज वह अपने को ही जानता है। और एकबार भी किसी ने अपने स्वाद ले लिया तो उसने अमृत को स्वाद ले लिया। फिर न कोई अँधेरा है, फिर न कोई अचेतना है।
और वह एक घड़ी धीरे—धीरे तुम्हारे चौबीस घड़ियों पर फैल जाएगी। फिर भी तुम बाजार में, रहोगे फिर भी तुम घर में। वही होगी पत्नी, वही होगा बच्चा। लेकिन तुम वही नहीं होओगे। तुम्हारे जीवन में एक क्रांति घटित हो जाएगी। तुम्हारे देखने के सारे परिप्रक्ष्य, तुम्हारी आंखें बदल जाएंगी। एक शांति—और ऐसी शांति, जिसकी कोई गहाराई कभी नाप नहीं सका। और एक प्रकाश,और एक ऐसा प्रकाश, जिसमें ने तो कोई तेल है, न कोई बाती है—बिन बाती बिन तेल। इसलिए उसके चुकने को कोई उपाय नहीं है।
इस अनुभूति के बिना सारा जीवन व्यर्थ है। और इस अनुभूति को पा लेना उस परम ऐश्वर्य को पा लेना है, जो कभी चुकता ही नहीं है।
ओशो