दुविधा की स्थिति

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जब भी तुम दुविधा में हो — हृदय किसी चीज के लिये पूरी तरह से ‘हाँ’ कहता हो, और बुद्धि की व्यवहारिक दृष्टि ‘ना’ कहती हो; या अगर बुद्धि किसी चीज के समर्थन में हो, और हृदय उस ओर बिल्कुल न जाना चाहे — तो इस प्रयोग में उतरो!

इस प्रयोग को, इस विधि को एक खेल की तरह लो। यह प्रयोग किसी निर्णय पर पहुँचने के लिये नहीं है, बल्कि यह प्रयोग चित्त में संतुलन लाने के लिये है।

सवाल इस बात का नहीं है कि तुम बुद्धि या हृदय में से किसी के पक्ष में निर्णय लो या विपक्ष में, क्योंकि हरेक पक्ष के अपने-अपने पॉजिटिव और निगेटिव पॉइंट्स होते हैं। दरअसल, हर पक्ष अपना लगेज लेकर आता है।

तो सवाल इस बात का नहीं है कि तुम क्या चुनो — सवाल इस बात का है कि तुम जो भी चुनो, वह चुनाव पूरा हो और तुम पूरी तरह से उस निर्णय के साथ खड़े रहो; और उससे आने वाला हर पॉजिटिव और निगेटिव रिजल्ट तुम्हें स्वीकार हो।

किसी भी निर्णय पर पूरा उतरने के लिये चाहिये एक संतुलित चित्त। यह प्रयोग तुम्हारे चित्त को एक संतुलन देगा।

कभी भी, जब स्वयं को दुविधा और असमंजस में पाओ तो दोनों पाँव फैलाकर खड़े हो जाओ। आँखें बंद कर लो और महसूस करो कि किस पाँव पर बोझ ज्यादा है।

तुम्हारा दायां हिस्सा तुम्हारी बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है, और बायां हिस्सा हृदय का। अगर लगे कि दायें पाँव की ओर बोझ ज्यादा है, तो थोड़ा बोझ बायें पाँव की ओर ले जाओ, और देखो कि अब कहीं बायीं ओर तो ज्यादा बोझ नहीं है।

दोनों पाँवों को तराजू के दो पलड़े बन जाने दो, और अपने सिर को तराजू का मध्य बिंदु। जब तक तराजू पूरी तरह संतुलित न हो जाये, तब तक बोझ को यहाँ से वहाँ शिफ्ट करने का खेल खेलते रहो।

एक बिंदु पर जब लगे कि तराजू पूरा संतुलित हो गया है, तो फिर पूरे प्राणों से एक निर्णय ले लो, और फिर उसके साथ पूरी तरह हो जाओ।

ओशो