प्रेम और घृणा

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जहाँ प्रेम है — साधारण प्रेम — वहाँ छिपी हुई घृणा भी होती है! उस प्रेम का दूसरा पहलू है, घृणा।

जहाँ आदर है — साधारण आदर — वहाँ एक छिपा हुआ पहलू है, अनादर का। जीवन की प्रत्येक सामान्य भावदशा अपने से विपरीत भावदशा को साथ ही लिये रहती है।

तुमने अभी जो प्रेम जाना है, बड़ा साधारण प्रेम है, बड़ा सांसारिक प्रेम है। इसलिये घृणा से मुक्ति नहीं हो पायेगी। अभी तुम्हें प्रेम का एक और नया आकाश देखना है, एक और नई सुबह, एक और नये प्रेम का कमल खिलाना है! वैसा प्रेम ध्यान के बाद ही संभव होगा।

मेरे साथ दो तरह के लोग प्रेम में पड़ते हैं। एक तो वे, जिन्हें मेरी बातें भली लगती हैं, मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं। और कौन जाने, मेरी बातें प्रीतिकर गलत कारणों से लगती हों!

समझो कोई शराबी यहाँ आ जाये, और मैं कहता हूँ: ‘मुझे सब स्वीकार है, मेरे मन में किसी की निंदा नहीं है।’ अब इस शराबी की सभी ने निंदा की है। जहाँ गया, वहीं गाली खाई है। जो मिला, उसी ने समझाया है। जो मिला, उसी ने इसको सलाह दी है कि बंद करो यह शराब पीना। मेरी बात सुनकर कि मुझे सब स्वीकार है, शराबी को बड़ा अच्छा लगता है, जैसे किसी ने उसकी पीठ थपथपा दी! उसे मेरे प्रति प्रेम पैदा होता है।

यह प्रेम बड़े गलत कारण से हो रहा है। यह प्रेम इसलिये पैदा हो रहा है कि उसके अहंकार को जाने-अनजाने पुष्टि का एक वातावरण मिल रहा है। इस बात का वह आदमी अपने ही व्यक्तित्व को मजबूत कर लेने के लिये उपयोग कर रहा है। तो प्रेम हो जायेगा। लेकिन इस प्रेम के पीछे घृणा छिपी रहेगी।

तुम्हारे जीवन में प्रेम की कमी है। न तुम्हें किसी ने प्रेम दिया है, न किसी ने तुमसे प्रेम लिया है। और जब मैं तुम्हें पूरे हृदय से स्वीकार करता हूँ तो तुम्हारा दमित प्रेम उभर कर ऊपर आ जाता है। लेकिन यह प्रेम घृणा को छिपाये हुए है।

और ध्यान रखना, जैसे दिन के पीछे रात है, और रात के पीछे दिन है, ऐसे ही प्रेम के पीछे घृणा है। तो कई बार प्रेम समाप्त हो जायेगा, तुम एकदम घृणा से भर जाओगे। बेबूझ घृणा से! और तुम्हें समझ में ही नहीं आयेगा कि इतना तुम प्रेम करते हो, फिर यह घृणा क्यों!

घृणा इसीलिये है कि वह जो तुम प्रेम करते हो, अभी ध्यान से पैदा नहीं हुआ है — वैचारिक है, भावनागत है!

एक दूसरा प्रेम है जो ध्यान से पैदा होता है। ध्यान से जब प्रेम गुजरता है तो सोने में जो कूड़ा-कचरा है, वह सब जल जाता है — ध्यान की अग्नि में। और ध्यान की अग्नि से गुजरता है जब प्रेम तो कुंदन होकर प्रकट होता है।

फिर उसमें कोई घृणा नहीं होती। फिर एक समादर है, जिसमें कोई अनादर नहीं होता।

प्यारे ओशो
“हंसा तो मोती चुगै” प्रवचनमाला