अदभुत ग्रंथ

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एक अदभुत ग्रंथ है भारत में। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अदभुत ग्रंथ पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव। छोटी-सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनिया में खोजनी मुश्किल है। कुल एक सौ बारह सूत्र हैं। हर सूत्र में एक ही बात है। हर सूत्र में एक ही बात! पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वही एक सौ बारह बार दोहराई गई है–एक ही बात! और हर दो सूत्र में एक विधि पूरी हो जाती है।

पार्वती पूछ रही है शंकर से, शांत कैसे हो जाऊं? आनंद को कैसे उपलब्ध हो जाऊं? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तियों में शंकर उत्तर देते हैं। दो पंक्तियों में वे कहते हैं, बाहर जाती है श्वास, भीतर आती है श्वास। दोनों के बीच में ठहर जा; अमृत को उपलब्ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वास, भीतर आती है श्वास; दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।

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पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। और शंकर दो-दो सूत्र में कहते चले जाते हैं। हर बार पार्वती कहती है, नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तियां। और हर पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वास, अंदर जाती श्वास। जन्म और मृत्यु; यह रहा जन्म, यह रही मौत; दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहें।

एक सौ बारह बार! पर एक ही बात, दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रीतिकर-अप्रीतिकर, ठहर जा–अमृत की उपलब्धि। पक्ष-विपक्ष, ठहर जा–अमृत की उपलब्धि। आसक्ति-विरक्ति, ठहर जा–अमृत की उपलब्धि। दो के बीच, दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए, वह गोल्डन मीन, स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वही है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थ हो जाना। सम्मान-अपमान, ठहर जाओ–मुक्ति। दुख-सुख, रुक जाओ–प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु, ठहर जाओ–सच्चिदानंद में गति।
कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना और दो के बीच में तटस्थ हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्त योग का सार इतना ही है, दो के बीच में जो ठहर जाता, वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत से च्युत हो जाती है। बस, इतना ही।
लेकिन मजबूरी है–चाहे शिव की हो, और चाहे कृष्ण की हो, या किसी और की हो–वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती है। फिर-फिर कहनी पड़ती है। कहनी पड़ती है इसलिए, इस आशा में कि शायद इस मार्ग से खयाल में न आया हो, किसी और मार्ग से खयाल आ जाए।
ओशो