कर्म

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मनुष्य के जीवन में दो तरह के कर्म

हमारी जिंदगी में दो तरह के कर्म हैं। एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं, कल कुछ कुछ पाने की आशा में। ऐसा कर्म भविष्य की तरफ से “धक्का” है, खींचना है। भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह। जैसे एक गाय को कोई गले में रस्सी बांध खींचे लिए जा रहा है, ऐसा भविष्य हमारे गले में रस्सियां डालकर हमें खींचे लिए जा रहा है। यह मिलेगा, इसलिए हम यह कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में, कर अभी रहे हैं। रस्सी अभी गले में पड़ी है; हाथ में जो फंदा है रस्सी का, वह भविष्य के लिए है। मिलेगा, नहीं मिलेगा, यह पक्का नहीं है। क्योंकि भविष्य का अर्थ ही यह है कि जो पक्का नहीं है। भविष्य का अर्थ ही यह है, जो अभी नहीं हुआ है, होगा। लेकिन उस आशा में हम रस्सी में बंधे हुए पशु की तरह भागे चले जा रहे हैं।

हम भविष्य के पाश में बंधे हुए खिंचे जा रहे हैं। पशु का मतलब ही इतना है कि जो भविष्य से बंधा है और जिसकी लगाम भविष्य के हाथों में है और जो खिंचा जा रहा है। जो रोज आज इसलिए जीता है कि कल कुछ होगा, कल भी इसीलिए जियेगा कि परसों कुछ होगा। यह “भविष्य उन्मुख रहने वाले” है, वह फलासक्ति का अर्थ है। भविष्य-केंद्रित जीवन।

एक ऐसा कर्म भी है, जो भविष्य से खिंचाव की तरह नहीं निकलता, बल्कि “स्वाभाविक” है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है। जो हम हैं, उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर आप जा रहे हैं, किसी आदमी का–आपके सामने चल रहा है, उसका छाता गिर गया है, आपने उठाया और छाता दे दिया। न तो छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई “पत्रकार” आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि यह आदमी धन्यवाद देगा कि नहीं; तो यह कर्म फलासक्तिरहित हुआ। यह आपसे निकला सहज। लेकिन समझें कि उस आदमी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया, दबाया छाता और चल दिया। और अगर मन में विषाद की जरा-सी भी रेखा आई, तो आपको फलाकांक्षा का पता नहीं था लेकिन अचेतन में फलाकांक्षा प्रतीक्षा कर रही थी। आप सचेतन नहीं थे कि इसके धन्यवाद देने के लिए मैं छाता उठाकर दे रहा हूं, लेकिन अचेतन मन मांग ही रहा था कि धन्यवाद दो। उसने धन्यवाद नहीं दिया, उसने छाता दबाया और चल दिया, तो आपके मन में विषाद की एक रेखा छूट गई और आपने कहा कि यह कैसा कृतघ्न, कैसा अकृतज्ञ आदमी है! मैंने छाता उठाकर दिया और धन्यवाद भी नहीं! तो भी फलाकांक्षा हो गई। अगर कृत्य अपने में पूरा है, “कुल”, अपने से बाहर उसकी कोई मांग ही नहीं है, तो फलाकांक्षारहित हो जाता है।
कोई भी कृत्य जो अपने में पूरा है, “गोले” की तरह है; वृत्त की तरह अपने को घेरता है और पूर्ण हो जाता है और अपने से बाहर की कोई अपेक्षा ही उसमें नहीं है। बल्कि छाता देकर आपने उसे धन्यवाद दिया कि तूने मुझे एक पूर्ण कृत्य करने का मौका दिया, जिसमें कि कोई आकांक्षा न थी वह अवसर मेरे लिए दे दिया! लेकिन जब पूर्ण कृत्य होता है तो वह इतना आनंद दे जाता है कि उसके पार कोई मांग नहीं है।

फलाकांक्षारहित कृत्य का मेरी दृष्टि में जो अर्थ है वह यह है कि कृत्य पूर्ण हो, उसके बाहर कोई सवाल ही नहीं है। वह खुद ही इतना आनंद दे जाता है, वह खुद ही अपना फल है, कृत्य ही अपना फल है, आज ही अपना फल है, यही क्षण अपना फल है।

ओशो
(कृष्ण स्मृति, प्रवचन #19)