जेल का अनूठा अनुभव

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अमरीका की जेलों में मुझे बहुत सारे अनुभव हुए जो शायद जेल के बाहर नहीं भी होते, क्योंकि करीब—करीब पांच जेलों में मुझे रखा गया—बिना कारण, बिना किसी जुर्म के। लेकिन शायद मैं गलत हूं, मैं जिसे जुर्म नहीं समझता हूं वे उसे जुर्म समझते हैं। सोचना जुर्म है, शांत होना जुर्म है, मौन जुर्म है, ध्यान जुर्म है। सत्य शायद इस दुनिया में सब से बड़ा पाप है। वे उसकी ही मुझे सजा दे रहे थे। लेकिन उनकी तकलीफ यह थी जो कि हर जेलर ने मुझे अपनी जेल से छोड़ते वक्त कही कि हजारों कैदी हमारी जेल से गुजरे हैं लेकिन एक बात जिसने हमें सोने नहीं दिया वह यह कि हम तुम्हें सता रहे हैं और तुम मजा ले रहे हो। मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी समझ के बाहर है क्योंकि तुम जिसे सता रहे हो वह मैं नहीं हूं और जो मजा ले रहा है वह मैं हूं। मैं देख रहा हूं नाटक को जो मेरे चारों तरफ चल रहा है। और जब जेल के बाहर पत्रकार मुझसे पूछते कि आप कैसे हैं तो मैं उनसे कहता कि ठीक वैसा जैसा हमेशा से था, तो अमरीकी पत्रकार की समझ के बाहर था। वह कहता कि जेल में और जेल के बाहर आपको कोई फर्क समझ नहीं आता? मैं उनसे कहता जेल में और जेल के बाहर तो बहुत फर्क है मगर तुमने कुछ और पूछा था। तुमने मेरे बाबत पूछा था, जेल की बाबत नहीं पूछा था। जेल के भीतर और जेल के बाहर मैं वही हूं। जेल में फर्क है और जेल के बाहर फर्क है। हथकड़ियों में बंधा हुआ भी मैं वही हूं। और हथकड़ियों से छूट जाऊंगा तो भी वही हूं। हथकड़ियां मुझे कैसे बदल सकती हैं? और जेल की दीवारें मुझे कैसे बदल सकती हैं?

आखिरी जेल से निकलते वक्त उस जेल के प्रधान ने मुझसे कहा कि यह मेरे जीवन का अनूठा अनुभव है। मैंने जेल में लोगों को प्रसन्न तो आते देखा है, प्रसन्न जाते नहीं देखा। तुम जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हो। राज क्या है?

मैंने कहा: वही तो मेरा जुर्म है कि मैं लोगो को वही राज समझा रहा था। तुम्हारी सरकार और दुनिया की कोई सरकार नहीं चाहती कि वह राज लोग समझ जाए। क्योंकि उस राज के समझते ही सरकारों की सारी ताकतें तुम्हारे ऊपर से समाप्त हो जाती हैं। जेल बेकार हो जाती है, बंदूकें बेमानी हो जाती हैं, बिना चले हुए कारतूस चले हुए कारतूस हो जाते हैं। आग फिर तुम्हें जलाती नहीं और तलवार फिर तुम्हें काटती नहीं। इसलिए जो लोग तलवार और आग के ऊपर तुम्हारी छाती पर सवार हैं वे नहीं चाहते कि तुम पहचान सको कि तुम कौन हो। उनकी सारी ताकत नष्ट हो जाती है। तुम्हारी पहचान उनकी मौत है। और यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सदियों में जब भी कभी किसी आदमी ने तुम्हें तुम्हारी याद दिलाने की कोशिश की है तो सरकार आड़े आ गई है। न्यस्त स्वार्थ आड़े आ गए हैं।

कोपले फिर फ़ूट आई-01
ओशो