परमात्मा से प्रेम

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रामानुज एक गांव से गुजर रहे थे। एक आदमी ने आकर कहा कि मुझे परमात्मा को पाना है। तो उन्होंने कहा कि तूने कभी किसी से प्रेम किया है? उस आदमी ने कहा की इस झंझट में कभी पडा ही नहीं। प्रेम वगैरह की झंझट में नहीं पडा। मुझे तो परमात्मा का खोजना है।

रामानुज ने कहा: तूने झझंट ही नहीं की प्रेम की? उसने’ कहा, मैं बिलकुल सच कहता हूं आपसे। वह बेचारा ठीक ही कहा रहा था। क्योंकि धर्म की दुनिया में प्रेम एक डिस्क़अलिफिकेशन है।

एक अयोग्यता है।

तो उसने सोचा मैं कहूँ की मैं कहूं की किसी को प्रेम किया था, तो शायद वे कहेंगे की अभी प्रेम-व्रेम छोड, वह राग-वाग छोड,पहले इन सबको छोड कर आ, तब इधर आना। तो उस बेचारे ने किया भी हो तो वह कहता गया कि मैंने नहीं किया है। ऐसा कौन आदमी होगा, जिसने थोडा बहुत प्रेम नही किया हो?

रामानुज ने तीसरी बार पूछा कि तू कुछ तो बता, थोडा बहुत भी, कभी किसी को? उसने कहा, माफ करिये आप क्यों बार-बार वही बातें पूछे चले जा रहे है? मैंने प्रेम की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। मुझे तो परमात्मा को खोजना है।

तो रामानुज ने कहा: मुझे क्षमा कर, तू कहीं और खोज। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि अगर तूने किसी को प्रेम किया हो तो उस प्रेम को इतना बडा जरूर किया जा सकता है कि वह परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन अगर तूने प्रेम ही नहीं किया है तो तेरे पास कुछ है नहीं जिसको बडा किया जा सके । बीज ही नहीं है तेरे पास जो वृक्ष बन सके। तो तू जा कहीं
और पूछ।

संभोग से समाधि की ओर – 3

ओशो