रामकृष्ण का अनूठा प्रयोग

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रामकृष्ण ने एक अनूठा प्रयोग इस सदी के प्रारंभ में किया–पिछली सदी के अंत में; कि पहुंचने के बाद उन्होंने दूसरे मार्गो पर भी चल कर देखा, कि वहां से भी कोई पहुंचता है कि नहीं? समाधिस्थ हो जाने के बाद। यह पहली ही घटना है मनुष्य-जाति के इतिहास में। इसलिए रामकृष्ण बड़े अनूठे हैं। उनका अनूठापन इसमें है।

यह बात ही व्यर्थ लगती है : जब तुम स्टेशन पहुंच गए, तब लौट कर गांव में जाना और यह देखना कि दूसरे रास्ते से भी पहुंच सकते हैं कि नहीं। बात ही फिजूल लगती है। स्टेशन आ गया, बात खत्म हो गई। प्यास लगी थी, नदी आई, पानी पी लो। अब इसमें क्या पड़ी है कि तुम गांव में फिर जाओ और देखो, कि दूसरे रास्तों से भी पहुंचना होता है कि नहीं?

रामकृष्ण ने पहली दफा प्रयोग किए। रामकृष्ण सर्वधर्म समभाव के पहले प्रतीक हैं। और सभी धर्म पहुंचा देते हैं, इसका पहला प्रयोग है। अनुभव हो जाने के बाद उन्होंने दूसरी साधनाएं कीं। इस्लाम की साधना की, ईसाइयत की साधना की, तंत्र की साधना की–जानने के लिए, कि क्या पहुंचना हो जाता है?

निश्चित ही जो पहुंच चुका है एक दफा, उसे देर नहीं लगती है फिर दूसरे मार्ग से भी पहुंचने में। उसे पता तो है ही मंजिल का। अब यह तो खेल हो जाता है। जो एक सीढ़ी से चढ़ गया मंजिल पर, चढ़ने की कठिनाई तो समाप्त हो गई, चढ़ना तो उसे आ ही गया। अब तुम सीढ़ी दूसरी रख दो, इससे कोई बहुत अड़चन थोड़े ही पड़ती है! चढ़ना तो उसे आता ही है।

रंग अलग होगा सीढ़ी का, पायदान थोड़े बड़े-छोटे होंगे, किसी और कारखाने में ढली होगी, लोहे की होगी, लकड़ी की होगी, प्लास्टिक की होगी–कुछ हजार फर्क होंगे, लेकिन जो चढ़ना जानता है और एक दफा चढ़ गया शिखर तक, वह घड़ी भर में दूसरी से भी चढ़ जाएगा।

रामकृष्ण ने जब इस्लाम की साधना की तो वे तीन दिन में वहीं पहुंच गए, जहां पहुंचने में जनम-जनम लगे थे उनको पहली यात्रा से। जब उन्होंने ध्यान की साधना की बुद्ध के मार्ग पर, तो वे छह महीने में वहीं पहुंच गए।

अब यह थोड़ा सोचने जैसा है, कि बुद्ध के मार्ग पर उनको छह महीने लगे, इस्लाम के मार्ग पर तीन दिन लगे; मामला क्या है?

मामला यह है, कि रामकृष्ण की जो पहुंचने की व्यवस्था थी, वह स्त्रैण थी; वह प्रार्थना का मार्ग था। इस्लाम का भी मार्ग प्रार्थना का है। इसलिए हिंदू धर्म में, इस्लाम धर्म में उतना फासला नहीं है, जितना हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में फासला है। हिंदू धर्म और इस्लाम तो एक से हैं। उनमें गुणधर्म का कोई फासला ही नहीं है। मंदिर, मसजिद बिलकुल करीब हैं। क्योंकि दोनों ही प्रार्थना पर आधारित धर्म हैं। अब यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी। साधारणतः हम सोचते हैं, कि जैन, बौद्ध और हिंदू ज्यादा करीब हैं क्योंकि हिंदुओं से ही तीनों पैदा हुए हैं। वह बात गलत है। ईसाई ज्यादा करीब हैं हिंदुओं के। मुसलमान ज्यादा करीब हैं। जैन और बौद्ध बहुत फासले पर हैं। क्योंकि ये सब मार्ग हृदय के हैं। जैन और बौद्ध मार्ग ध्यान के हैं, प्रेम के नहीं हैं।

तो रामकृष्ण को छह महीने लगे ध्यान से पहुंचने में। प्रार्थना से तो वह पहुंच चुके थे। यह सीढ़ी जरा बड़ी टेड़ी-मेढ़ी थी उनके लिए। बड़ी रस शून्य थी। यह रास्ता बड़ा सूखा था, निर्जन था। वे नाचते हुए पहुंचे थे, गीत गाते हुए पहुंचे थे। यहां चुपचाप पहुंचना था। वह बिलकुल उलटा था मामला। पहले जब पहुंचे थे, तब अपने को मिटा कर पहुंचे थे, परमात्मा को बना कर पहुंचे थे। अब अपने को बनाना था और परमात्मा को मिटाना था। यह बड़ा कष्टपूर्ण था।

जिस सिद्ध के नीचे वे सीखते थे, बड़ी कठिनाइयां आईं। क्योंकि वह जो काली थी, जो मां थी, जिसको अनुभव किया था उन्होंने अपने को मिटा कर, वह बाधा बनने लगी। यह बिलकुल विपरीत मार्ग था। यह पूरब-पश्चिम जैसा मामला था। तो जिस तांत्रिक के नीचे वे ध्यान सीख रहे थे, उस तांत्रिक ने एक दिन कहा, कि मैंने तुमसे ज्यादा अपात्र शिष्य नहीं पाया। और हालांकि मैं जानता हूं, कि तुम सिद्ध पुरुष हो। और जहां तक तुम्हारी प्रार्थना से पहुंचने का संबंध है, मैं तुम्हारे पैर छूता हूं। मगर तुमसे ज्यादा अपात्र मैंने शिष्य नहीं पाया। और अगर आज तुम न कर पाए ध्यान तो मैं छोड़ कर चला जाऊंगा। मेरे छह महीने खराब कर दिए। क्या लगा रखा है यह काली-काली-काली! आंख बंद करो और फेंको इसको, अलग करो। हटाओ इस काली को।

यह बात ही भक्त को बड़ी बेहूदी लगती है। और वह जाने को तैयार हो गया और वह बड़ा सिद्ध पुरुष था। और अगर इसके पास साधना न हो पाई तो रामकृष्ण जानते हैं, ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल होगा। वे जानते हैं, कि यह आदमी ठीक कह रहा है। यह भी समझ में आता है, कि बात ठीक है, इस रास्ते पर यह काली बीच-बीच में आती है। पर वे करें क्या? वे आंख बंद करें और काली खड़ी! वे आंख बंद करें और भूल ही जाएं उस सिद्ध को, जो सामने बैठा है। काली बीच में खड़ी है। वे मगन हो गए। धुन बन गई भीतर। नशा छा गया, डोलने लगे।

और वह कह रहा है, कि डोलना नहीं है। डोलना ही तो छोड़ना है। रोआं न कंपे। वह एक कांच का टुकड़ा ले आया एक बोतल तोड़ कर और उसने कहा, कि देखो, तुमसे नहीं होता, मुझे ही करना पड़ेगा। आज तुम आंख बंद करो, या तो मैं, या तुम्हारी काली–दो में से तुम चुन लो। आंख बंद करो, और जब काली खड़ी हो जाए तुम्हारे भीतर, उसी वक्त मैं तुम्हारे माथे को इस कांच के टुकड़े से काट दूंगा। जब मैं तुम्हारा माथा काटूं और लहू बहने लगे और दर्द हो, उसी वक्त हिम्मत करके तुम भी एक तलवार उठा कर काली को दो टुकड़ों में काट देना।

रामकृष्ण के रोएं-रोएं कंप गए। उन्होंने कहा, यह तो बहुत ज्यादा हो जाएगा; यह तो मत करवाएं। और यह वे जानते हैं कि वह नहीं करवा रहा, खुद ही करने को उत्सुक हैं। इस प्रयोग को करके देखना है।

तो उसने कहा, मैंने कभी तुम्हें कहा नहीं। तुम उत्सुक हो। जरूरत भी मुझे मालूम नहीं होती, कि कोई जरूरत भी है, लेकिन यह तुम चाहते हो, तो करना पड़ेगा। तो फिर पूरा करना पड़ेगा। यह काली को साथ नहीं लिया जा सकता। एक साधन के जगत में जो सहयोगी है, वही चीज दूसरे साधन के जगत में बाधा हो जाती है। इसे तुम्हें छोड़ना ही होगा। और यह आज आखिरी है उपाय।

हिम्मत करके रामकृष्ण ने आंख बंद की। आंख से आंसू बह रहे हैं। क्योंकि काली को काटना पड़ेगा, तलवार उठानी पड़ेगी। उस काली को, जिसके लिए अपने को मिटाया था–उसको काटना है! बड़ा कठिन है।

तुम सोच सकते हो, अगर तुमने कभी किसी को प्रेम किया हो, उसको काटना है। फिर भी तुम पूरा न सोच पाओगे, क्योंकि जैसा रामकृष्ण ने काली को प्रेम किया है, ऐसा तुमने किसी को भी न किया होगा। क्योंकि उतना प्रेम तुम किसी को भी कर लो, तो परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।

आंख से आंसू बह रहे हैं, हृदय जार-जार रो रहा है। लेकिन वह सिद्ध-पुरुष कठोर है। वह मार्ग अलग है। वहां यह सब बात फिजूल है। वहां यह काली सिर्फ कल्पना है। उस मार्ग पर यह सब मन का ही जाल है, यह सब विचार है, प्रक्षेपण है।

उसने कांच को उठाया और रामकृष्ण के माथे को बहुत गहरा काट दिया। जिंदगी भर वह निशान बना रहा फिर। लहूलुहान हो गए। उन्होंने भी भीतर एक दफा हिम्मत की; क्योंकि करना तो है, नहीं तो यह सिद्ध-पुरुष छोड़ कर चला जाएगा। फिर ध्यान की संभावना न रह जाएगी। उठाई तलवार, काट दी। काली दो टुकड़े हो कर भीतर गिर गई, ध्यान उपलब्ध हो गया।

लेकिन छह महीने लगे इस घड़ी को आने में। ध्यान उपलब्ध हुआ, तब जाना कि यह तो वही की वही बात है। वही बच रहता है। एक ही बच रहता है, उसके नाम भर अलग हैं। कहो आत्मा, अगर महावीर के मार्ग पर चले तो उसका नाम आत्मा; अगर मीरा के मार्ग पर चले तो उसका नाम कृष्ण, परमात्मा; लेकिन वह एक ही बात है।

और जैसे ही “मैं” मिटता है, “तू” भी मिट जाता है। “तू” मिटता है, “मैं” भी मिट जाता है। बस, एक ही बच रहता है। वह एक विराट है।

रामकृष्ण ने अनूठे प्रयोग किए। इस सदी के लिए जरूरत थी। बड़ी जरूरत थी, कि कोई सारे धर्मो के सार को निचोड़ कर के रख दे। जो रामकृष्ण ने किया वह अधूरा है। वह पूर्वार्ध है। और मैं जो कर रहा हूं, वह उत्तरार्ध है।

कहे कबीर दिवाना, प्रवचन – 20, ओशो