लोग सारा जीवन एक ही बात में लगाते हैं कि कैसे मकान बनाएं, कैसे दुकान लगाएं। और आखीर में करते क्या हो?
आखीर में एक चादर ओढ़कर रात सो रहते हो। दो रोटी पेट में डाल कर क्षुधा मिट जाती है। फिर चाहे तुम सोने के पात्र में पानी पियो या एक फूटे तुंबे में, न तो तुंबे से पानी और प्यास का कोई संबंध है, न सोने का पानी और प्यास से कोई संबंध है। प्यास का संबंध तो पानी से है। अब पानी तुंबे में है कि सोने के पात्र में, क्या फर्क पड़ता है!
लेकिन लोग पानी की कम फिक्र करते हैं, सोने के पात्र की ज्यादा फिक्र। जीवन लगा देते हैं। प्यासे, भूखे दौड़ते रहते हैं कि सोने का पात्र चाहिए। सोने का पात्र मिलेगा, तब उनकी प्यास बुझेगी। अब, सोने के पात्र से प्यास के बुझने का संबंध क्या है? प्यास पानी से बुझती है। एक फूटा तुंबा काफी है।
पलटू यह कह रहे हैं कि जीवन में जो जरूरी है, उसे पूरा कर लेना। मगर जरूरत के पीछे दीवाने होकर सदा मत दौड़ते रहना। कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा को बिसार ही दो। तुंबे को सोने का पात्र बनाना है। छप्पर पर चांदी की छड़ें लगाना है। वस्त्रों में हीरे-जवाहरात टांकने हैं।
तो तुम मतलब की बात ही भूल गए। तुम असली बात ही भूल गए कि वस्त्र तन को ढांकने को हैं; छप्पर वर्षा धूप से बचा लेने को है।
तुम अपने जीवन में झांकना। तुम्हारे जीवन में अकसर यही होता है कि असार के लिए तुम ज्यादा शक्ति लगाए रखते हो। सार पर कोई शक्ति लगती ही नहीं। फिर अगर जीवन में विषाद आता है तो कौन जुम्मेवार है!
ओशो
कहे कबीर दीवाना