विश्वास और विवेक

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बुद्ध एक गांव में गए थे। एक अंधे आदमी को कुछ लोग उनके पास लाए और उन मित्रों ने कहा कि यह आदमी अंधा है और हम इसके परम मित्र हैं। और हम इसे सब भांति समझाने की कोशिश करते हैं कि प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता और इसकी दलीलें ऐसी हैं कि हम हार जाते हैं। और हम जानते हैं कि प्रकाश है, हमें देखते हुए हारना पड़ता है। यह आदमी हमसे कहता है, मैं प्रकाश को छूकर देखना चाहता हूं। अब हम प्रकाश का स्पर्श कैसे करवाएं? यह आदमी कहता है छोड़ो, स्पर्श न हो सके तो मैं सुन कर देखना चाहता हूं मेरे पास कान हैं। तुम प्रकाश में आवाज करो, मैं सुन लूं। छोड़ो, यह भी न हो सके तो मैं स्वाद लेकर देख लूं या प्रकाश में कोई गंध हो तो गंध लेकर देख लूं।

कोई उपाय नहीं है। प्रकाश तो आंख से देखा जा सकता है और आंख इसके पास नहीं है। और यह आदमी यह कहता है कि तुम फिजूल ही मुझे अंधा सिद्ध करने को प्रकाश की बातें करते हो। तुम भी अंधे मालूम होते हो, प्रकाश की ईजाद तुमने मुझे अंधा बताने के लिए तय कर ली है। तो हमने सोचा, आप इस गांव में आए हैं, शायद आप इसको समझा सकें।

बुद्ध ने कहा कि मैं इसे समझाने के पागलपन में नहीं पडूगा। आदमी की आज तक मुसीबत ही उन लोगों ने की है जिन लोगों ने आदमी को ऐसी बातें समझाने की कोशिशें की हैं जो उनको दिखाई नहीं पड़ती। मनुष्य के ऊपर उपदेशक बड़ी महामारी सिद्ध हुआ है। वे ऐसी बातें समझाता है जो उसको दिखाई नहीं पड़ती।

तो बुद्ध ने कहा कि मैं यह गलती करने वाला नहीं हूं और मैं यह समझाने वाला नहीं हूं कि प्रकाश है। मैं तो इतना कह सकता हूं कि इस आदमी को तुम गलत जगह ले आए हो। मेरे पास लाने की जरूरत न थी। किसी वैद्य के पास ले जाओ जो इसकी आंख का इलाज कर सके। इसे उपदेश की नहीं, उपचार की जरूरत है। तुम्हारे समझाने का सवाल नहीं, तुम्हारी समझाई गई बात पर विश्वास करने का सवाल नहीं। इसकी आंख ठीक होनी चाहिए। और आंख ठीक हो जाए तो तुम्हें समझाने की जरूरत न पडेगी, यह खुद ही देख सकेगा, खुद ही जान सकेगा।

उनको बात ठीक जंची। बुद्ध ने कहा है कि मैं तो धर्म को उपदेश नहीं मानता हूं उपचार मानता हूं। तो इसे ले जाओ। वे उस अंधे को ले गए और भाग्य की बात थी कि वह अंधा कुछ महीनों के इलाज से ठीक हो गया। बुद्ध तो दूसरे गांव चले गए थे। वह अंधा आदमी ठीक हो गया था। वह बुद्ध के चरण छूने गया और उसने उन्हें प्रणाम किया और उसने कहा कि मैं गलती में था। प्रकाश तो था, लेकिन मेरे पास आंख नहीं थी। लेकिन बुद्ध ने कहा तू गलती में जरूर था, लेकिन तूने जिद्द की कि जब तक आंख न होगी तब तक मैं मानने को राजी न होऊंगा, तो तेरे आंख का इलाज भी हो सका। अगर तू मान लेता उन मित्रों की बात कि तुम कहते हो तो ठीक है, तो बात वहीं खत्म हो जाती। आंख के इलाज का सवाल भी नहीं उठता।

जो लोग विश्वास कर लेते हैं, वे विवेक तक नहीं पहुंच पाते। जो लोग चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं, वे स्वयं के अनुभव तक नहीं पहुंच पाते। जो अंधे हैं और पकड़ लेते हैं कि दूसरे कहते हैं प्रकाश है तो जरूर होगा, फिर उनकी यात्रा वहीं बंद हो जाती है। यात्रा तो तब होती है जब बेचैनी बनी रहे, बनी रहे, बनी रहे, बेचैनी छूटे नहीं। और बेचैनी तभी होती है जब मुझे लगता है कि कोई चीज है, लोग कहते हैं लेकिन मुझे दिखाई नहीं पड़ती तो मैं कैसे मान लूं? मैं ही देखूं तो मानूं! यह बेचैनी मन में हो कि मेरे पास आंख हो तो मैं स्वीकार करूं।

साधना पथ, प्रवचन-६, ओशो