श्रद्धा

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तुमने खबर सुनी होगी लोगों की कि जो आग पर चल लेते हैं! वह भी सम्मोहन की गहरी अवस्था है। अगर तुमने ऐसा मान लिया कि नहीं जलूंगा तो आग भी नहीं जलाती। मानने की बात है। अगर जरा भी संदेह रहा तो मुश्किल हो जायेगी, तो जल जाओगे।

ऐसा बहुत बार हुआ है कि कुछ लोग सिर्फ हिम्मत करके चले गये, कि जब इतने लोग चल रहे हैं तो हम भी चल लेंगे; लेकिन भीतर संदेह का कीड़ा था, वे जल गये।

आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में इस पर प्रयोग किया गया। लंका से कुछ बौद्ध भिक्षु बुलाये गये थे—चलने के लिए। वे बुद्ध—पूर्णिमा को हर वर्ष बुद्ध की स्मृति में आग पर चलते हैं। वह बात बिलकुल ठीक है। बुद्ध की स्मृति में आग पर चलना चाहिए, क्योंकि बुद्ध की कुल स्मृति इतनी है कि तुम देह नहीं हो। तो जब हम देह ही नहीं हैं तो आग हमें कैसे जलायेगी?

कृष्ण ने गीता में कहा है : न आग तुझे जला सकती है, न शस्त्र तुझे छेद सकते हैं। नैनं छिन्दति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक:। नहीं आग तुझे जला सकती, नहीं शस्त्र तुझे छेद सकते हैं।

तो बुद्ध—पूर्णिमा के दिन श्रीलंका में बौद्ध भिक्षु आग पर चलते हैं। उन्हें निमंत्रित किया गया। वे आक्सफोर्ड में भी चले। जब वे आक्सफोर्ड में चल रहे थे तो एक भिक्षु जल गया। कोई बीस भिक्षु चले, एक भिक्षु जल गया। खोज—बीन की गयी कि बात क्या हुई! वह भिक्षु सिर्फ इंग्लैंड देखने आया था। उसे कोई भरोसा नहीं था कि वह चल पायेगा। उसकी मर्जी कुछ और थी। वह तो सिर्फ यात्रा करने आया था। उसकी तो आकांक्षा इतनी ही थी कि इंग्लैड देख लेंगे। और उसने सोचा कि ये जब उन्नीस लोग नहीं जलते तो मैं क्यों जलूंगा! मगर भीतर संदेह का कीड़ा था, वह जल गया।

और वहीं उसी रात दूसरी घटना घटी कि एक प्रोफेसर, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर जिसने कभी यह घटना न देखी थी न सुनी थी, वह सिर्फ बैठकर देख रहा था; उसे देखकर इतना भरोसा आ गया कि वह उठा और चलने लगा और चल गया। न तो वह बौद्ध था, न धार्मिक था। उसे तो कुछ पता ही नहीं था। उसे तो सिर्फ इतने लोगों का चलना देखकर यह लगा, यह भाव इतनी गहनता से उठा, यह श्रद्धा इतनी सघन हो गयी कि वह उठा एक गहन आनंद—भाव में और नाचने लगा आग पर! भिक्षु भी चौंके, क्योंकि भिक्षुओं को तो यह खयाल था कि बुद्ध भगवान उन्हैं बचा रहे हैं। यह आदमी तो कोई बौद्ध नहीं है, यह तो अंग्रेज था और धार्मिक भी नहीं था। चर्च भी नहीं जाता था, तो क्राइस्ट भी इसकी फिक्र नहीं करेंगे। बुद्ध से तो कुछ लेना—देना है नहीं। इसका तो कोई भी मालिक नहीं था। सिर्फ श्रद्धा!

हम जो मानते हैं गहन श्रद्धा में, वही हो जाता है।

ओशो

अष्टावक्र महागीता, भाग-१,