मैंने सुना है एक आदमी अंधा था।
उसके आठ लड़के थे, आठ बहुएं थीं। चिकित्सकों ने कहा कि तुम्हारी आंख ठीक हो सकती है, आपरेशन करना होगा। उसने कहा, क्या करेंगे? फायदा क्या है?
मेरी पत्नी के पास दो आंखें हैं, मेरे आठ लड़कों के पास सोलह आंखें हैं, मेरी आठ बहुओं के पास सोलह आंखें हैं। ऐसी चौतीस आंखें मुझे उपलब्ध हैं। दो न हुईं मेरी, क्या फर्क पड़ता है?
लेकिन संयोग की बात! जिस दिन उसने यह इंकार किया उसी रात घर में आग लग गई। वे चौतीस आंखें भागकर बाहर निकल गईं।
अंधा चिल्लाता रहा, टटोलता रहा रास्ता। लपटों में जल-भुनकर गिरकर मर गया। मरते वक्त एक ही भाव उसके मन में था, अपनी आंख अगर आज होती…!
जो बाहर भागकर निकल गए–पत्नी, बेटे, बहुएं, उनको याद आयी उसकी, लेकिन बाहर जाकर याद आयी। जब अपने प्राण संकट में पड़े हों तो किसको किसकी याद आती है?
इसलिए महावीर कहते हैं, अपनी आंख।
आंखवालों से सीख लेना, मगर अपनी आंख के अतिरिक्त किसी और की आंख को अपना सहारा मत बनाना।
अपनी आंख जब तक न मिल जाए, सीखना, साधना; लेकिन चेष्टा यही रखना कि अपनी आंख मिल जाए। अपनी आंख से ही कोई सत्य का दर्शन कर पाता है।
सत्य के साक्षात के लिए स्वयं की आंख के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।